पुण्य और तप का एक अंश गुरू से शिष्य को समर्पित करने का दिन है "गुरु पूर्णिमा"

गोरखपुर। महर्षि व्यास अपने आप में महान परम्परा के प्रतीक हैं। वे आर्दश के लिए समर्पित प्रतिभा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। लेखक, वक्ता यदि लेखनी, तूलिका, वाणी द्वारा सृजन की क्षमता रखने वाले लोग व्यास जी का अनुसरण करने लगें तो संसार का बहुत कल्याण हो सकता है। आध्यात्मिक स्तर पर गुरू-शिष्य के सम्बन्धों में तो अनुशासन और भी गहरा एवं अनिवार्य हो जाता है। गुरू शिष्य को अपना पुण्य, प्राण और तप का एक अंश प्रदान करता है। यह अंश प्राप्त करने की कला एक निश्चित अनुशासन के अन्दर ही सम्भव है। यह तभी होता है जब शिष्य के अन्दर गुरू के प्रति गहन श्रद्धा और समर्पण का भाव हो।



गुरूपूर्णिमा पर्व गुरू-शिष्य के बीच पवित्र सूत्रों की स्थापना और उन्हे दृढ़ करने के लिए आता है। गुरू व्यक्ति के रूप में पहचाना जा सकता है पर वह व्यक्ति जो सीमा में सीमित न हो। जो शरीर तक सीमित है और चेतना रूप में विकसित नही है,वह अपना अंश शिष्य को नही प्रदान कर सकता है। जो इस विद्या को न जानने वाला अर्थात स्वयं प्रज्ञावान नही है, वह गुरू नही है और जो शिष्य गुरू को शरीर से परे,शक्ति-सिद्धान्त रूप मे पहचान न सका, वह शिष्य नही है ।गुरू शिष्य पर अनुशासन दृष्टि रखता है और शिष्य गुरू से उपदेश किये गये निर्देश को मानता और अपनाता है। जिनके बीच में इस प्रकार का सूत्र स्थापित नही होता है, उनका सम्बन्ध, चिन्ह पूजा मात्र कहे जाने योग्य है और गुरू-शिष्य में अन्ध-बधिर का जोड़ा बनकर रह जाता है। भारतीय संस्कृति में गुरू-शिष्य का सम्बन्ध दाता और भिखारी जैसा नही है। यह सहयोगी-साझेदारी जैसा है। गुरू अपनी साधना और ज्ञान का एक अंश शिष्य को प्रदान कर उसके जीवन स्तर को समुन्नत करता है। ऐसा उठा हुआ शिष्य लोक और राष्ट्र के कल्याण में तत्पर हो जाता है। इसी प्रकार शिष्य भी अपने अर्जित सम्पदा में से कुछ गुरू जी को देता और गुरू भी अपने निर्वहन के पश्चात अपने वित्त और आध्यात्मिक सम्पदा से संसार का कल्याण करते हैं। जहाँ गुरू अपने स्नेह,तप से शिष्य का निर्माण एवं विकास करता है,वहीं शिष्य को भी अपनी श्रद्धा से गुरू का भी विकास करना चाहिए।



द्रोणाचार्य कौरवों के लिए सामान्य वेतनभोगी शिक्षक से अधिक कुछ न बन सके,वहीं पाण्डवों के लिए अजेय विद्या के स्रोत बने ।यही द्रोणाचार्य एकलव्य के लिए एक अद्भुत चमत्कार बन गये ।इसका अन्तर यह था कि एकलव्य के अन्दर गुरू तत्त्व के प्रति श्रद्धा सुमन का भाव था। रामकृष्ण परमहंस जन सामान्य के लिए एक बाबा जी से अधिक कुछ लाभ न दे सके परन्तु नरेन्द्र के लिए,जिन्होने अपनी श्रद्धा से उन्हें गुरू के रूप में विकसित कर लिया था,उनके लिए अवतार तुल्य सिद्ध हुए। इसलिए शिष्यों को अपनी श्रद्धा,तपश्चर्या,साधना द्वारा सशक्त गुरू निर्माण का प्रयास जारी रखना चाहिए। गुरूपूर्णिमा पर्व यही संदेश लेकर आता है।



आचार्य पं शरदचन्द मिश्र


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