आजादी की लड़ाई का गवाह है यह मंदिर

गोरिल्ला युद्ध में माहिर बाबू बंधू सिंह अंग्रेजों की देते थे इस मंदिर में बलि


शहर में तो वैसे कई देवी मंदिर हैं। इन मंदिरों में नवरात्र के दिनों में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है उसी तरह शहरी सीमा से सटे क्षेत्र में भी ऐसे मंदिर हैं जहां लोगों की काफी आस्था है और बड़ी संख्या में श्रद्धालु इन मंदिरों में भी पहुंच कर मन्नतें मांगते हैं। इन मंदिरों में तरकुलहा देवी मंदिर शामिल हैं। इन सभी मंदिरों का अपना-अपना इतिहास है। ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं बल्कि शहर में भी रहने वाले श्रद्धालु बड़ी संख्या में इन मंदिरों में पहुंच कर माता के दरबार में अपनी हाजिरी लगाते हैं।



तरकुलहा देवी मंदिर


गोरखपुर। चौरीचौरा क्षेत्र के तरकुलहा देवी माई का मंदिर आज पूर्वाचल के प्रमुख आस्था के केंद्र के रूप में पहचाना जाता है। पूरे साल लाखों लोग इस मंदिर पर आते हैं। मंदिर पर मत्था टेककर मनोकामना मांगते हैं। मनोकामना पूरी होने के बाद बलि देने की परंपरा का पालन करते हुए प्रसाद ग्रहण करते हैं। नवरात्र के पहले दिन यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचे और मातारानी का दर्शन किया। राप्ती सिमरन आज आपको बताने जा रहा है कि मंदिर का इतिहास क्या है और मंदिर की क्या विशेषता है।


बंधू सिंह करते थे पूजा


तरकुलहा मंदिर का एरिया आजादी के पहले ड्रमरी रियासत के अधीन आता था। यहां से होकर गोर्रा नाला बहता था। यहां पर एक तरकुल के पेड़ के नीचे दो पिंड थे। इसी पिंड को बाबू बंधू सिंह अपने आराध्य देवी के रूप में पूजा करते थे. कहा जाता है कि बंधू सिंह ड्रमरी स्टेट के राजघराने से ताल्लुक रखते थे। राजघराना त्याग कर जंगल में आकर इस वन देवी की पूजा करने लगे। किवदंती है कि बंधू सिंह माता को प्रसन्न करने के लिए बलि चढ़ाने लगे। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन के समय 1857 की लडाई में बंधू सिंह अंग्रजो के सबसे बड़े दुश्मन बन गए।


बलि से बन गई प्रथा


कहा जाता है कि बंधू सिंह गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे। वह अंग्रेजों को लेकर जाकर मंदिर में बलि चढ़ा देते थे। पहले अंग्रेजों को लगा कि अंग्रेज सिपाही जंगल में गायब हो जा रहे हैं, लेकिन जब उन्हें हकीकत का पता चला तो वे बंधू सिंह को खोजने लगे। एक व्यापारी की मुखबिरी पर अंग्रेजों ने उनको पकड़ा और 12 अगस्त 1857 को अलीनगर में उनको खुलेआम फांसी दी गई। कहा जाता है कि अंग्रेजों ने छह बार उनको फांसी चढ़ाया, लेकिन हर बार उनकी फांसी का फंदा टूट जाता था। बार-बार इससे आजिज आकर बंधू सिंह ने माता से विनती की और प्राण छोड़ने की बात कही। इस बार अंग्रेजों ने उनको फांसी देने में सफल हो गए। जिस तरकुल के पेड़ के नीच पिंड था, उसका मत्था टूटकर गिर गया और उसमें से खून की धारा बह चली। इसके बाद माता का नाम तरकुलहा देवी के रूप में प्रसिद्ध हो गया और बलि चढाकर माता को प्रसन्न करने की प्रथा शुरु हो गई।


लगता है विशाल मेला


चैतराम नवमी को तरकुलहा देवी मंदिर परिसर में विशाल मेला लगता है। यह मेला करीब दो माह तक चलता है जिसमें पूर्वाचल से लेकर देश के कई हिस्सों से श्रद्धालु आते हैं। शारदीय नवरात्र में यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचकर कर मां के दरबार में हाजिरी लगा कर पूजा अर्चना करते हैं। वैसे तो यहां पर साल के 365 दिनों श्रृद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है।


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