कथा


गृहस्थ आश्रम से बड़ा कोई आश्रम नहीं : स्वामी राघवाचार्य जी 

 

गोरखपुर। वेद नित्य है, अनादि हैं, वेद की रचना किसी ने नहीं कि है। वेद प्रगट हुए हैं। वेद स्वयं भगवान हैं। वेद भगवान नारायण का शब्द रूप है। चूकिं किसी की रचना नहीं है इसलिए उसमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है। वेद धर्म में परम प्रमाण है। धर्म वह है जो सदैव रहे इसलिए सत्य सनातन धर्म ही केवल धर्म है बाकि सब पंथ है। गृहस्थ आश्रम में यदि तप हो तो उससे बड़ा कोई आश्रम नहीं है क्योंकि गृहस्थ आश्रम ही सभी आश्रमों का आधार है। पति परायण स्त्री को ही हमारे शास्त्रों में साध्वी कहा गया है। व्यासपीठ से अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरू रामानुजाचार्य स्वामी राघवाचार्य जी महाराज ने कहा।उन्होंने युगपुरुष ब्रह्मलीन महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज की 50वीं तथा राष्ट्रसंत महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज की पांचवीं पुण्यतिथि के अवसर पर गोरक्षनाथ मन्दिर में आयोजित साप्ताहिक श्रद्धांजलि समारोह के तीसरे दिन 'श्रीमद्भागवत महापुराण कथा ज्ञानयज्ञ' के प्रारम्भ में व्यासपीठ का विधि-विधान से पूजन-अर्चन हुआ।

'मोहन प्रेम बिना नहीं मिलता चाहे कर लो कोटि उपाय' भजन पर सभी भक्त झूम उठे कथाव्यास ने कहा भगवान प्रेम से मिलते हैं। भगवान प्रेम के बस में रहते हैं। प्रेम से बड़ा कोई पुरूषार्थ नहीं है। परमात्मा को जान लेने के बाद किसी अन्य ज्ञान-विज्ञान को जानने की आवश्यकता नहीं है। 

उन्होंने महर्षि कपिल की जन्म की कथा तथा कपिल द्वारा अपनी माता देवभूमि को बालक के गर्भधारण से लेकर जन्म तक की अवस्थाओं की कथा सुनाने का प्रसंग, सती एवं दक्ष प्रजापति की कथा के साथ ध्रुव की कथा कही। जब भगवान करूणा करते है तब मनुष्य का जन्म मिलता है। 

ध्रुव की कथा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि ध्रुव जी को कठोर तप से भगवान का दर्शन प्राप्त हुआ। जप, तप पुरुषार्थ, निष्ठा से व्यक्ति भगवान का दर्शन प्राप्त करता है। ध्रुव ने भगवान की स्तुति की, आरती उतारी, भगवान प्रसन्न हुए और ध्रुव से वरदान माँगने को कहा भगवान के वरदान् से उन्होंने 36 हजार वर्ष तक राज्य किया। कथावाचक ने कहा कि जहाॅ सहनशीलता, करुणा और समत्व का भाव होता है, भगवान वहीं निवास करते हैं। ये गुण धु्रव में थे। ध्रुव की मृत्यु के समय मृत्यु ने स्वयं ध्रुव से कहा कि आप मेरे सिर पर अपना चरण रख दें तो मैं धन्य हो जाऊँ। भौतिक शरीर त्यागने के बाद ध्रुव को दिव्य शरीर प्राप्त हुआ और उनका एक लोक बना-धु्रव लोक। ध्रुव का अर्थ होता है-लक्ष्य पर अडिग रहना।  श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और प्रेम से भगवान स्वयं प्रकट होते हैं। धु्रव को ध्रुव बनाने में माता सुनीति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अपमानित, उद्विग्न ध्रुव को माता ने ही उपदेशित किया था। माँ का सर्वोच्च स्थान है। मातृ देवो भव। माता चाहे तो अपने पुत्र में संस्कार डालकर भारत माता का वीर सपूत बना सकती है। 

परीक्षित जी ने शुकदेव जी महाराज से पूछा कि बड़ी जिम्मेदारी के बीच गृहस्थ बंधन से कैसे मुक्त हो सकता है तो शुकदेव जी ने कहा कि अतिविषयी, तमोगुणी का त्याग करना और सात्विक भगवत् भक्त का संग करने से मुक्ति मिलेगी। भगवत् भक्त के यहाॅ निरादर भी हो तो भी साथ नहीं छोड़ना चाहिए। भगवत् चरणों में शरणागति प्राप्त कर लेना मुक्ति का साधन है। भगवान् जिसे अपना मान लें उसका उद्वार होना स्वाभाविक है। स्वामी रामशुकदास जी ने भी भवगत् शरणागति को गीता का सार कहा है।  

व्यासपीठ से अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरू रामानुजाचार्य स्वामी राघवाचार्य जी महाराज ने कहा कि जिस ज्ञान को भगवान से प्राप्त किया जाय वह भागवत है। भगवान के भक्त को भी भागवत कहते हैं अर्थात् जिस पुराण में भगवान के भक्त, ध्रुव, प्रहलाद, गोपियों जैसे भक्तो का वर्णन हो वह पुराण भागवत पुराण है। भगवान की जब कृपा होती है तभी सत्संग मिलता है। मनुष्य बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता। इस शरीर से या तो पाप होता है या तो पुण्य होता है। इस संसार में सभी अपने कर्माें का फल भोगते है इसलिए कर्म के साथ फल की इच्छा नहीं होनी चाहिए। जब तक भोग की कामना है तब तक भक्ति नहीं मिल पायेगी। फल की कामना करने वाला व्यक्ति नास्तिक हो जाता है क्योंकि जब उसकी इच्छा पूर्ण नहीं होती तब उसका ईश्वर से विश्वास उठ जाता है। जब मनुष्य के अन्दर भौतिक फल की इच्छा आती है तो सबसे पहले हृदय में अज्ञान आता है। कमना के कारण ही व्यक्ति ठगा जाता है। इसलिए लोक-परलोक की चिन्ता छोड़ ईश्वर की भजन करो। मृत्यु पर्यन्त तक भगवत रसपान करने से मृत्यु के समय भी ईश्वर नहीं भूलते इसलिए सदगती मिलती है। भगवान संसार के कण-कण मंें व्याप्त है। यह सृष्टि भगवान से ही प्रगट हुई है। 'सियाराम मय सब जग जानी' यह पूरा संसार राम मय है। क्योंकि की सारे जीव भगवान में ही समाहित होते है। शुकदेव जी ने राजा परीक्षित जी से कहा कि अपने कर्मों के द्वारा ही मनुष्य की मुक्ति होती है। शब्द सदैव विद्यमान रहते हैं इसलिए बहुत विचार कर मुह से बाणी निकालनी चाहिए। सम्पूर्ण सृष्टि के मूल में तपस्या है। तपस्या से ही सृष्टि की उतपत्ति हुई है। 


आगे पुरन्जनोपाख्यान की चर्चा की जिसमें बताया कि वेदान्त कहते हैं कि असाधक के लिए भगवान दूर और साधक के लिए हृदय मे होते हैं। भगवान ही सच्चा मित्र है। शरीर रूपी वृक्ष की दो शाखाएॅ हैं, जिस पर दो पक्षी बैठे हैं, एक जीव रूपी और दूसरा ईश्वर रूपी। जीव रूपी पक्षी भोगों को भोगता हुआ दुःखी रहता है जबकि परमात्मा रूपी पक्षी फल न खाते हुए भी सुखी रहता है। 

आगे शुकदेव जी ने परीक्षित जी से कहा कि संसार में आसक्त मन दुःख दिलाता है और प्रभु में आसक्त मन मोक्ष दिलाता है। मन व्यक्ति का शत्रु और मित्र दोनों होता है। वन, गुफा में जाने पर भी अगर व्यक्ति में विषयों के प्रति आसक्ति है तो वह बंधन में ही रहेगा और नियम-संयम से रहने वाले, मन इन्द्रियों को वश में करने वाले के लिए घर ही तपोवन बन जाता है। वानप्रस्थियों, संन्यासियों को गृहस्थ ही भिक्षा देता है। अतः गृहस्थ जीवन में रहने वाला व्यक्ति यदि नियम-संयम से रहता है और भगवान को भजता है तो उसका भी मोक्ष हो जाता है। 

भारत वर्ष की महिमा का अत्यन्त सजीव चित्रण कथावाचक ने किया। श्रीमद्भागवत कथा में भगवान के साथ भारत माता की उपासना का अद्भुत एवं अद्वितीय प्रसंग प्रस्तुत किया गया। 

मंच पर कालीबाड़ी के महन्त रवीन्द्रनाथ जी महाराज एवं मुख्य यजमान के रूप में अजय सिंह मुन्शी, विकास जालान, महेश पोद्दार, सीताराम जायसवाल, अवधेश सिंह उपस्थित रहे।   

कथा में कथा का संचालन डाॅ0 श्रीभगवान सिंह ने किया कथा में डाॅ0 प्रदीप राव, डाॅ0 अरविन्द कुमार चतुर्वेदी, बृजेश मणि मिश्र, डाॅ0 रोहित मिश्र, रंगनाथ त्रिपाठी, प्रांगेश मिश्र, शुभम मिश्र, शशांक पाण्डेय उपस्थित रहें। 

 


Comments