कैकयी के हठ के कारण उन्हें राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास पर भेजना पड़ा


खीर के दो भाग सुमित्रा ने लिए और एक भाग कैकेयी ने ग्रहण किया। खीर खाने के बाद तीनों रानियाँ गर्भवती हो गईं। समय आने पर चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, बृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से राम ने जन्म लिया। सुमित्रा ने शत्रुघ्न और लक्ष्मण, दो पुत्रों को जन्म दिया और कैकेयी ने भरत को। जब दासी ने राजा दशरथ को पुत्रों के जन्म का समाचार दिया तो दशरथ की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने तत्काल अपने गले के मोतियों का हार दासी की झोली में डाल दिया और मंत्री को आदेश दिया मंत्रीवर! सारे नगर को सजाओ। राजकोष खोल दो बिना दान-दक्षिणा और भोजन किए कोई भी व्यक्ति राजद्वार से वापस न जाए। सारे नगर में धूम-धाम से उत्सव मनाओ। राजा की आज्ञा लेकर मंत्री हाथ जोड़ अभिवादन करके चला गया। राजा दशरथ तेज कदमों से चलते हुए रनिवास में पहुँचे। अपने पुत्रों को देखकर उनकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं। राजा दशरथ की शांता नाम की एक पुत्री भी थी, जिसे इनके मित्र राजा रोमपाद ने गोद ले लिया था। अपने बड़े पुत्र राम के राज्याभिषेक की इच्छा दशरथ कभी पूरी नहीं कर पाए, क्योंकि वे एक शाप से ग्रसित थे। रानी कैकयी के हठ के कारण उन्हें राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास पर भेजना पड़ा। इसी पुत्र वियोग में दशरथ का देहांत हो गया। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेख मिलता है कि एक दिन शिकार करते समय नदी में हाथी के पानी पीने के समान आवाज़ सुनकर दशरथ ने शब्द-भेदी बाण चलाया था, जिससे श्रवणकुमार नामक एक नवयुवक, जो अपने अंधे माता-पिता को लेकर तीर्थयात्रा पर निकला था और उस समय नदी से माता-पिता की प्यास बुझाने के लिए जल पात्र में भर रहा था, की दर्दनाक मृत्यु हो गई। पुत्र की मृत्यु के बाद अन्धे माता-पिता ने भी तड़प कर मरते हुए राजा दशरथ को शाप दिया कि-तुम भी हमारी ही तरह पुत्र के शोक में मरोगे। राम के सीता से विवाह के बाद दशरथ ने यह घोषणा कर दी थी कि राम का राज्याभिषेक तुरन्त ही होगा। कैकेयी की एक कुबड़ी दासी थी, जिसका नाम मन्थरा था। उसने कैकेयी को बचपन से पाल-पोस कर बड़ा किया था और जब कैकेयी का विवाह राजा दशरथ के साथ हुआ तो वह भी मानो दहेज में उसके साथ भेजी गई थी। मन्थरा एक कुटिल राजनीतिज्ञ थी। उसने कैकेयी को मंत्रणा दी कि राम के राज्याभिषेक से कैकेयी का भला नहीं वरन् अनहित ही होने वाला है। उसने कैकेयी को राजा दशरथ से अपने दो वर माँगने की सलाह दी। यह घटना उस समय की है, जब दशरथ देवों के साथ मिलकर असुरों के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। असुरों को खदेड़ते समय उनका रथ युद्ध के फलस्वरूप रक्त, पसीने तथा मृतक शरीर में फंस गया। उस रथ की सारथी स्वयं कैकेयी थीं। उसी समय किसी शत्रु ने युधास्त्र चला कर दशरथ को घायल कर दिया तथा वह मरणासन्न हो गये। यदि कैकेयी उनके रथ को रणभूमि से दूर ले जाकर उनका उपचार नहीं करतीं तो दशरथ की मृत्यु निश्चित थी। दशरथ ने होश में आकर कैकेयी से कोई भी दो वर माँगने का आग्रह किया। उस समय रानी कैकेयी ने कहा कि वह समय आने पर अपने दोनों वर माँग लेगी। अब जबकि दासी मन्थरा के बहकावे में आकर कैकेयी को यह आभास हो गया कि श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद उसका अनहित ही होने वाला है, उसने कोप भवन में जाने का विचार कर लिया। उस काल में रनिवास में एक कोप दर्शनार्थियों केंद्र के रूप में इसकी ख्याति टेकते समाधि इसी के आसपास भवन होता था, जहाँ कोई भी रानी किसी भी कारणवश कुपित होकर अपनी असहमति व्यक्त कर सकती थी और राजा का कर्तव्य होता था कि उसे कोप भवन के प्रांगण में जाकर उस रानी को मनाना पड़ता था। राजा दशरथ ने भी वैसा ही किया। कैकेयी दशरथ की सबसे युवा और प्रिय रानी थीं, जबकि इस समय राजा दशरथ स्वयं चौथे काल में पहुँच चुके थे। जब कैकेयी ने अपने दो वर माँगने की इच्छा दर्शाई तो कामोन्मुक्त राजा दशरथ राजी हो गये। इस समय कैकेयी के प्रति वासना जागना स्वाभाविक था और उस वासना के लिए जो भी बन पड़े वह निभाने के लिए उस समय राजा तत्पर रहते थे। अब कैकेयी ने राजा दशरथ से वह दो वर माँगे। एक से स्वयं के पुत्र भरत के लिए अयोध्या की राजगद्दी तथा दूसरे से राम को चौदह वर्ष का वनवास। राजा दशरथ यह बर्दाशत नहीं कर सके। उन्होंने कैकेयी को बहुत मनाने की कोशिश की। उसे बुरा-भला भी कहा। लेकिन जब कैकेयी ने उनकी एक न मानी तो वह आहत होकर वहीं कोप भवन में गिर गये। और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।


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