राम का नाम ही मूल सुख है इनके साथ माता सीता का नाम जुड़ जाने से परमसुख में तब्दील हो जाता है : मुरारी बापू


गोरखपुर। गोरखनाथ मंदिर व श्रीराम कथा प्रेम यज्ञ समिति के तत्वाधान में ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी की स्मृति में आयोजित नौ दिवसीय श्रीराम कथा के अंतिम दिन रविवार को मानस कथा मर्मज्ञ मोरारी बापू ने विश्व मंगल कामना के लिए रामतत्व का ध्यान करते हुए। कहा संस्कृत भाषा में लकार धातु को धत् प्रत्यय जब लगता है, तब राम शब्द का जन्म होता है। शुद्ध व्याकरण के अनुसार जब प्रकृति में किसी शुभ घटना का योग होता है, तब श्री राम का प्रादुर्भाव होता है। राम जन्म मूल सुख है। राम में जब सीता जुड़ जाती है तो यह संयोग परम सुख है। राम अर्थात परम सर्व सुखदायक। रामआनंददायक है, सुखदायक है। राम शब्द का अर्थ है जो सबको प्रिय लगे। राम शब्द का अर्थ है ब्रह्माड से निरंतर संवाद। कहीं विवाद, विद्वेष, विरोध, व्याप्त हो जाता है, तो क्षमा प्रदान कर शरणागत कि रक्षा करते हैं।
     बापू ने कहा बाल्यावस्था सुख की अवस्था है। क्योंकि यहाॅ बालक पूर्णतः मां की छाया में होती है और मां प्रभु श्रीराम की तरह सर्व सुखदाई है। यह स्वयं मां का जानकी है।
     बापू ने कहा मानस महाग्रंथ में बालकांड सुख की अवस्था है। अयोध्याकांड और प्रेम दुख की परिचायक है। युवावस्था में प्रेम होता है और प्रेम में दुख और पीड़ा ना हो तो वह सच्चा प्रेम हो ही नहीं सकता। उन्होंने कहा युवावस्था संघर्ष और दुख की अवस्था है। यह साधना की अवस्था है। बापू ने कहा सच्चे प्रेम में पीड़ा ही फल है। प्रेम शब्द में पीड़ा ही 'पीर' है। जिन्होंने प्रेम को सुख समझकर किया है उन्होंने वास्तव में प्रेम को जाना ही नहीं है। यह निःस्वार्थ होता है। यह शास्वत है। प्रेम अयोध्या कांड का मूल विषय है और इसका अर्थ है पीड़ा और त्याग। बापू ने कहा प्रभु श्री कृष्ण के प्रेम में गोपियों को आंसू ही प्राप्त हुआ था, परंतु ये प्रेम का आंसू था।
उत्तरकांड अथवा उत्तरावस्था परम सुख की अवस्था है। इसमें पुनः जो सुख अयोध्या कांड में चला जाता है वह परम सुख बन कर लौट आता है। अर्थात परमसुख की प्राप्ति के लिए संघर्षों, कठिनाइयों, दुःख की धारा से होकर गुजरना पड़ता है। अर्थात मेरे युवा भाइयों बहनों को सफलता का शार्टकट नहीं है। आपको परिश्रम से ही सफलता प्राप्त होगी। अतः परिश्रम करने में तनिक भी संकोच व आलस्य न करें। सफलता आपके कदम चूमेगी।
बापू ने कहा प्रेम करो तो याद रखो सुख की अपेक्षा कभी मत रखना। हृदय से प्रेम करो। अतःकरण की भावना से प्रेम करो। प्रेम से संभव है कि आप लाख वफा करो, तो भी सामने वाला राजी ना हो तो क्यों करें। प्रेम का स्वभाव ही दुख देना हैं। परंतु वह दुख परम सुख के बदले का दुख होता है।
बापू ने कहा मेरे युवा भाई बहनों हमेशा याद रखो आपके पास सब कुछ आ जाएगा तब भी स्वयं परम तत्व के हाथ में है। मानव अभिमानवश कहता है, कि मेरे हाथ में सत्ता है, संपत्ति है। मैं शक्तिशाली हूं। परंतु यह भूल जाता है कि उसे यह सत्ता संपत्ति व शक्ति ईश्वर ने ही प्रदान किया है। जो युवा इस बात को याद रखता है वो हर छण हरि भक्ति में लीन है।
बापू ने कहा मैं जब किसी फिल्म का गीत गांउ तो यह समझना कि वह जहां फिल्माया गया है वह चलचित्र है, परंतु जब वह व्यासपीठ से निकल आता है तो यह परमतत्व है। उसका पुनर्जन्म हो जाता है।
बापू ने कहा प्रेम और पीड़ा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रेम करोगे तो पीड़ा होगी। बापू ने कहा संसार में वहम को समझने वाले बहुत हैं, परंतु प्रेम को समझने वाले विरले ही हैं। वहम इंसान को कमजोर करता है और विश्वास इंसान को कैलाश की भांति मजबूत करता है।
बापू ने कहा कल मैंने कहा था कि संगठन राग, द्वेष व हिंसा उत्पन्न करता है, परंतु इसका निहितार्थ है, कि साधना में संगठन की आवश्यकता नहीं। परंतु संस्कृति, राष्ट्र,धर्म, सेवा व समाज की भलाई के लिए संगठन आवश्यक है। समूह प्रार्थना, समूहश्रम, समूह विद्यार्जन के लिए समूह नितांत आवश्यक है। बापू ने कहा हर बात को समझने के लिए उसका संदर्भ देखना अत्यंत आवश्यक है।
बापू ने कहा कई पत्र-पत्रिकाओं ने गोस्वामी तुलसीदास के चैपाइयों को पदभ्रष्टक रूप में छापा है, क्योंकि उन्हें उस गूढ़ बात की समझ नहीं थी। मानस जैसे ग्रंथ को समझने के लिए प्रभु का दास (भक्त) बनना पड़ता है। तुलसी को गुरूमुख से पढ़ो। उनके भाव को ग्रहण करो। तुलसीदास जी ने समय, काल, परिस्थिति के अनुसार मानस महाग्रन्थ की रचना की है।
बापू ने कहा अंधेरा तो कभी प्रकाश से विवाद नहीं सकता। जब भी प्रकाश को ललकारा गया है तो इसे किसी अन्य प्रकाश ने हीं ललकारा अंधेरे का तो अस्तित्व ही नहीं है कि वह प्रकाश से मुकाबला करें। बापू ने कहा एक अच्छा व्यक्ति दूसरे अच्छे व्यक्ति को सत्य के पथ पर ललकार सकता है।
 बापू ने कथा विस्तारित करते हुए कहा मक्खी, काक और उल्लू यह कभी प्रेम कर ही नहीं सकते। प्रेम बड़ा पवित्र है और इसे प्राप्त करने के लिए हमें इसकी जितना पवित्र होना पड़ेगा। तभी प्रेम की प्राप्ति संभव है। मक्खी का स्वभाव ही नहीं प्रेम करने का।
 तोता, कोकिला और मयूर जब तक आपके पास परतंत्र होते हैं ये भाव का प्रदर्शन करते हैं परंतु जैसे ही इन्हें अवसर प्राप्त होता है। यह भाग निकलते हैं अर्थात इनका प्रेम अवसरवादी है । कोयल का स्वर मधुर है परंतु ये तो अपने खुद के अंडे कौवे के घोसले में रख देती है। उसे तो अपने बच्चे से ही प्रेम नहीं है । इसी प्रकार मोर की काया अत्यंत सुंदर है परंतु स्वभाव नहीं। बापू ने कहा सच्चा प्रेम करने वाले तो कुछ और ही होते हैं।
बापू ने नारी को केंद्र में रखकर कहा कि ज्योतिष विद्या में छठवें स्थान पर शत्रु तथा आठवें पर मृत्यु आता है, और बीच में सातवें स्थान पर स्त्री का वास है। इस कारण जनमानस में यह भ्रांति व्याप्त है कि नारी जहां बीच में रहती है तो वह या तो बैर (शत्रुता) कराती है या फिर मृत्यु का कारण बनती है। परन्तु सच्चे अर्थ में इसकी व्याख्या यह है कि स्त्री जहां होगी वह दो व्यक्तियों, दो परिवारों और दो जगत के बीच के शत्रुता को मिटा कर प्रेम व्याप्त कर देती है और मृत्यु के पास में गए अपने पति को सावित्री की तरह काल के गाल से भी वापस ला सकती है। स्त्री तो स्वयं आदिशक्ति है। वह प्रेम का प्रतीक है।
इब्राहिम बादशाह की कहानी के माध्यम से बापू ने बताया कि यदि कोई बुद्ध पुरुष हमें अपने शरण में ले और पूछे कि बोल तुझे क्या चाहिए, तेरी क्या लालसा है ? अर्थात अगर आपसे स्वयं पूछे कि आपको क्या चाहिए- धर्म चाहिए, अर्थ चाहिए, काम चाहिए अथवा मोक्ष चाहिए?
तब हमें उस परमपिता से बोलना चाहिए कि दाता हम आपकी शरण में आए हैं आप जो भाव से देंगे वह ग्रहण कर लेंगे। बापू ने कहा मेरे अर्थों में यही सार शरणागति सप्तक है।
बापू ने नौ दिवसीय कथा के केंद्रीय विषय मानस जोगी व नाथ परंपरा का सार बताते हुए कहा कि नाथ परंपरा में शून्य की बड़ी महिमा है। शून्य ही माॅ है, और शून्य ही बाप है। गोरक्षनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ एवं नाथ परंपरा के चरित्र को जिसने सुना वह सुनना ही उसका माता-पिता है। जाू शून्य की स्थिति को प्राप्त कर लेता है। वह योगी परंपरा में शून्य तथा भोगी परंपरा श्रवण करना एक ही है।
बापू ने कथा के प्रारंभ में 'तुलसीतत्व' चिंतन नामक पुस्तक का विमोचन किया,तथा मुख्य यजमान श्री किशनलाल ने कथा के दौरान अपने सहयोग सानिध्य व संरक्षण के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा गोरक्षपीठ का आभार ज्ञापित किया। आयोजन में सहयोग करने के लिए पुलिस प्रशासन, मीडियाकर्मी, स्वयंसेवक, एन0सी0सी0 के वालेंटियर्स, मारवाड़ी सेवा संघ, निःशुल्क प्याउ के लिए व्यवस्था के लिए पूर्वांचल शुद्धि जल, बस एवं वाहन व्यवस्था के लिए रोटरी क्लब, चाय स्टाॅल व्यवस्था के लिए डाॅ0 शैलेन्द्र दूबे, टेकरीवाल  परिवार, तुलस्यान परिवार, श्रद्धालुओं के आवासीय व्यवस्था के लिए प्रेमा जी व उनकी टीम तथा गोरखपुर के मेयर श्री सीताराम जायसवाल जिन्होने उपने विद्यालय, संस्थान श्रद्धालुओं के आवास हेतु पहले दिन से ही उपलब्ध कराया। उन सभी के प्रति आभार व्यक्त किया।
अंत में उन्होने विशेष धन्यवाद श्रीसतुआ बाबा, अखिलेश जी खेमका को ज्ञापित किया जिनके कुशल नेतृत्व एवं मार्गदर्शन में नौ दिवसीय कथा सकुशल संभव हो पायी।
बापू ने रामकथा को विस्तारित करते हुए कहा कि मानस में बाल कांड के बाद अयोध्या कांड का वर्णन आता है, जिसमें राम का वनगमन हुआ। उन्हें छोड़कर सुमंत वापस लौट आते हैं। राम के वियोग में राजा दशरथ की मृत्यु हो जाती है। भरत ननिहाल से लौटकर पिता का अंतिम संस्कार करते है। राम को मनाने के लिए भरत राजदरबार, परिवार व अयोध्या वासियों के साथ चित्रकूट धाम पर पधारते हैं। वे राम को वनवास त्याग कर राज सिंहासन संभालने का निवेदन करते हैं। परंतु प्रभु ने अपनी चरण पादुका भरत को देते हुए कहा- भरत राजधर्म का पालन करो। भरत चरण पादुका लेकर अयोध्या लौट आते हैं तथा चरण पादुका को सिंहासन पर स्थापित कर स्वयं सन्यासी की जीवन व्यतीत करने लगते हैं। अरण्य काण्ड में प्रभु की यात्रा आगे बढ़ती है। जिसके बाद किष्किंधा कांड का वर्णन मानस में आता है। किष्किंधा कांड में राम सुग्रीव मिलन संवाद बाली के निवार्ण प्राप्ति, सुग्रीव का राज्याभिषेक, राजमोह में सुग्रीव की वचन विरक्ति, लक्ष्मण द्वारा वचन का याद दिलये पर जानकी की खोज में सेना भेजी गई । दक्षिण में अंगद के नेतृत्व में सेना भेजी गई जिसके मार्गदर्श जामवंत तथा अन्तिम पर्वत में हनुमान थे। हनुमान को देखकर प्रभु को आभास हो गया था कि यही जानकी खोज का मंगल कार्य करेगा, और इन्हें अपने पहचान स्वरूप मुद्रिका दी।  सुंदरकांड की शुरुआत जामवंत के वचन से ही होती है। हनुमान जी लंका में प्रवेश करते हैं। जहां वह घर-घर में माता जानकी को खोजने लगते है। माता से मिलने के पश्चात अशोक वाटिका में फल खाने के लिए रूकते है। उत्मात मचाने पर अक्षय उन्हें रोकने आता है तो बजरंगबली उसका क्षय कर देते हैं। इन्द्रजीत, मेघनाथ उन्हें षाश में बाध कर रावण के समक्ष  ले जाते हैं और उनकी पूछ में आग लगा दी जाती है। उसी आग से विभीषण के घर को छोड़कर पूरी लंका नगरी को जलाकर भष्म कर देते हैं। जामवंत हनुमंत चरित्र श्रीराम को सुनाते है जिसे सुन प्रभु हनुमान को हृदय से लगा लेते हैं।
सागर के निवेदन पर राम नाम लिखे पाषाण से सागर पर सेतु का निर्माण होता है। जिससे समस्त सेना (वानर सेना) समुद्र पार कर लंका में प्रवेश करती है। बापू ने प्रसंग को सारगर्भिक करते हुए कहा कि शिव और राम तो समन्वयवादी है यह समाज को तोड़ते नहीं जोड़ते हैं । प्रभु की जीत उसी समय हो गई थी। जब उन्होंने रामेश्वरम में शिव की आराधना कर सेतु का निर्माण कर दिया। युद्ध तो असुरों को वीरगति प्रदान करें एवं रावण पर विजय की औपचारिकता मात्र थी। गोस्वामी जी ने युद्ध को महत्व नहीं दिया है। युद्ध के बाद राम सीता का पुनर्मिलन होता है। राम जानकी को लेकर अयोध्या चल पड़ते हैं । पथ में वे युद्ध भूमि रामेश्वरम आदि महत्वपूर्ण स्थानों जहां पर सीता हरण के बाद प्रवास किया का दर्शन कराते हुए निषादराज की कुटिया पधारते हैं । निषाद राज को साथ लेकर अयोध्या नगरी पहुंचतेे हैं । समस्त अयोध्यावासी उनके स्वागत के लिए आते हैं। राम अयोध्या पहुंच सबसे पहले अपने जन्मभूमि को प्रणाम करते हैं, और अखंड रूप धारण के प्रत्येक अयोध्यावासी से व्यक्तिगत रूप से मिलते हैं। राम जब भरत से मिलते हैं तो कोई पहचान ही नहीं पाता कि कौन राम है और कौन भरत दोनो वनवासी लग रहे थे। इसके पश्चात वह सर्वप्रथम कैकेई से मिलने जाते हैं और कहते हे मां तनिक भी लज्जित ना हो तूने अगर मुझे वन ना भेजा होता तो मैं स्वयं के यथार्थ मात्र मित्र जानकी के सत्य को नहीं जान पाता। तूने मुझ पर उपकार किया है । तत्पश्चात व सुमित्रा व माता कौशल्या से भेट करते है। गुरू वशिष्ठ ब्रह्मणों के साथ पधारते हैं और राम का राज्याभिषेक कर विश्व को रामराज्य प्रदान करते हैं। प्रभु श्री राम गुरु, पृथ्वी, सूर्य, माता व जनता को प्रणाम करते हुए माता जानकी के साथ अयोध्या के राज सिंहासन पर विराजमान होते है। राम शब्द के उद्घोष के साथ रामराज्य की स्थापना होती है। जिसके साक्षी बनने हेतु समस्त देवतागण पार्वती सहित स्वयं शिव पधारते हैं । दिव्य रामराज के वर्णन के पश्चात माता सीता ने दो पुत्र लव - कुश को जन्म दिया। इसी के साथ बापू ने रामकथा को विराम दे दिया। तुलसी के शब्दों में राम सीता की जोड़ी अखंड है।
कथा के अंत में बापू ने ब्रह्मलीन महन्त अवेद्यनाथ, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, यजमान परिवार, स्वयं सेवक एवं समस्त श्रद्धालुओं के प्रति आभार प्रकट हुए। इस नौ दिवसीय मानव जोगी कथा प्रेमी योगी (राधा बाबा और ब्रह्मलीन महन्त अवेद्यनाथ) के चरणों में समर्पित किया। बापू ने घोषण करते हुए कहा कि जब भी प्रभु ने अवसर दिया है, तो भगवान बुद्ध की निर्माण स्थली कुशीनगर में मानस निर्वाण कर केन्द्र में रखकर राम कथा अवश्य कहुंगा।
बापू की शिक्षा- बापू ने बताया बल्लभाचार्य के अनुसार पुष्टी के चार विभाग है। प्रवाह पुष्टी, मर्यादा पुष्टी, पुष्टी-पुष्टी एवं शुद्ध पुष्टी। बापू ने कहा कि मानस का पाठ इन चार विभागों के अनायास ही पुष्टि करता है। भगवत कथा तथा हरि कीर्तन मोक्ष का मार्ग है। जिसमें संसार की समस्त नौ रस विद्यमान है। बापू ने गणितज्ञ रामानुजम को विश्व का सबसे बड़ा गणितज्ञ बताते हुए कहा कि 1828 ई0 में दक्षिण भारत की एक गरीब ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था। वह मैट्रिक में ही फेल हो गए थे परंतु जब ईश कृपा से उनकी तीसरी आंख खुली अर्थात ज्ञान का साक्षात्कार हुआ तो वे क्षण़़ो में बड़े से बड़ा गणित का सवाल हल करने लगे । कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने रामानुज गणितिय क्षमता पर शोध किया। इसे उन्होंने साक्षात ईश्वर का साक्षात्कार करना बताया।
कथा के अंति दिन लगभग तीस हजार लोगों ने राम कथा का रसपान किया। बापू ने इसके साथ ही दीपावली तथा नववर्ष की शुभकामनाएॅ देते हुए नववर्ष की पहली कथा जो उत्तरकाशी में आयोजित हो रही है में आने का निमंत्रण दिया।


Comments