शारदीय नवरात्र का यहां है गौरवशाली अतीत


बांसगांव, गोरखपुर। ऐतिहासिक दुर्गा मंदिर की स्थापना के बाद पशु बलि से शुरू की गई पूजा अर्चना अब क्षत्रियों के स्वरक्त अर्पित करके देवी आराधना में बदल चुकी है। अतीत में बांसगांव के श्रीनेत वंशीय क्षत्रिय उनवल स्टेट स्थित देवी की दो पिंडियों की पूजा अर्चना के लिए पूरी तैयारी से जाते थे। वहा पर नवमी तिथि को पशु बलि चढ़ाकर देवी से अपने कुल की रक्षा करने के साथ ही सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य की कामना कर वापस लौट आते थे। वर्ष 1883 में नवमी तिथि को उनवल और बांसगांव के क्षत्रियों के बीच हुए एक विवाद के बाद बांसगांव के क्षत्रिय बल पूर्वक मां की एक पिंडी को लेकर बांसगांव चले आए। उक्त पिंडी को गांव के ही सीताराम सिंह पेशकार, गणेश सिंह तथा लालबहादुर सिंह के संयुक्त प्रयास से सूरजन सिंह के मकान के एक हिस्से में स्थापित कर मां की पूजा अर्चना शुरू कर दी। जहां पर शारदीय नवरात्र को पशु बलि चढ़ाया जाना शुरू कर दिया गया। 1933 में गांव के लोगों के सहयोग से मंदिर का निर्माण किया गया, जिसमें मां की पिंडी की प्राण प्रतिष्ठा के साथ स्थापना कर दी गई।


अमावस्या व परुआ को अशुभ मानते हैं श्रीनेत वंशीय


बांसगाव के इस ऐतिहासिक दुर्गा मंदिर पर कलश स्थापना का कार्यक्रम भी नवरात्र के प्रथम दिन नहीं होता। क्योंकि यहा के स्थानीय श्रीनेत वंशीय क्षत्रिय अमावस्या व परुआ को अशुभ दिन मानते हैं। कारण इसी दिन श्रीनेत वंशीय महाराजा का उत्तराखंड में उनके द्वारा स्थापित टिहरी राज्य में मा देवी की पूजा करते समय हत्या कर दी गई।


पशु बलि पर ऐसे लगी रोक


पशु बलि प्रथा से आहत गांव के ही निवासी तथा महाराजगंज के पूर्व सासद स्व. हर्षवर्धन सिंह के पिता योगेंद्र पाल सिंह के प्रयास से वर्ष 1943 में देश में गोवध को रोके जाने के आदोलन में अग्रणी रहे पं.रामचंद्र शर्मा आचार्य का बांसगांव में आगमन से हुआ। शर्मा पशु बलि को रोके जाने की दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ मंदिर के पास नीम के पेड़ के नीचे अनशन पर बैठ गए, जो तीन दिन बाद गांव के क्षत्रियों के पशु बलि बंद करने के संकल्प के साथ नवमी तिथि को टूटा। इस बारे में बांसगांव के पूर्व ब्लाक प्रमुख तथा जवाहर लाल नेहरू पीजी कालेज के प्रबंधक चतुर्भुज सिंह ने बताया कि इसके बाद भी नवमी को गांव के ही जगदेव सिंह व बाके सिंह एक-एक बकरे की बलि चढ़ाने मंदिर पर पहुंच गए। जिस पर आचार्य ने अपनी गर्दन बकरे के गर्दन पर रखते हुए कहा कि पहले मेरी गर्दन काटकर बलि चढ़ा दीजिए तब बकरे की बलि होगी। इसके बाद जगदेव सिंह बकरा लेकर वापस लौट गए। उन्होने बताया कि आचार्य ने ही व्यवस्था दी कि आप लोग अपने नौ अंगों से रक्त निकालकर मां के चरणों में अर्पित करें। तभी से यह परंपरा चली आ रही है।


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