मकर संक्रांति पर विशेष का तीसरा अंक
गोरखनाथ पिछले अंक में हिन्दू धर्म-दर्शन और साधना के अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदायों में नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख स्थान और नाथ सम्प्रदाय के सिद्धों या योगियों के साधना और योगज्ञान की महिमा के बारे में जानकारी दी गई थी। और अब नेपाल से गोरक्षमठ से क्या संबंध है। टिल्ला का प्राधान्य देखकर विंग्स ने अनुमान किया है कि वे सम्भवतः पंजाब के ही निवासी रहे होंगे। ग्रियर्सन साहब ने अनुमान लगाया हैं कि वे सम्भवतः पश्चिमी हिमालय के रहने वाले थे और उन्होंने नेपाल को आर्य अवलोकितेश्वर के प्रभाव से निकाल कर शैव बनाया थाआचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार श्री गोरखनाथ निश्चित रूप से ब्राह्माण जाति में उत्पन्न हुए थे और ब्राह्माण वातावरण में बड़े हुए थेज्ञानेश्वरी में सन्त ज्ञानेश्वर ने श्री गोरखनाथ जी का स्मरण अपने गुरू निवृत्तिनाथ के गुरू गैनी या गहिनिनाथ के गुरू के रूप में किया है।
'गोरख सहस्त्रनाम' तथा 'कौलज्ञाननिर्णय' नामक ग्रंथों में भी किसी 'वडव' नामक स्थान महामंत्र के प्रसाद श्रीगोरखनाथ के प्राकट्य बात लिखी हैं। 'महार्थमंजरी' नामक ग्रंथ गोरखनाथ की ही रचना मानी जाती हैं, के अनुसार वे चोल देश के निवासी थे। उनके पिता का नाम माध्व और गुरू का नाम 'महाप्रकाश(मत्स्येन्द्रनाथ) था। गुरू ने उनका नाम महेश्वरानन्द रखा था। किन्तु उनका लोकप्रचलित नाम गोरक्ष ही था। नेपाली परम्पराओं से अनुमान होता है कि ये (पंजाब) से नेपाल गये थेगोरखपुर स्थित गोरखनाथ मंदिर की परम्परा के अनुसार श्रीनाथ जी यहां गोरखटिल्ला 'झेलम(पंजाब) से आये थे। नासिक के योगियों का विश्वास है कि वे पहले नेपाल से पंजाब फिर पंजाब से ही नासिक की ओर आये थे। टिल्ला का प्राधान्य देखकर विंग्स ने अनुमान किया है कि वे सम्भवतः पंजाब के ही निवासी रहे होंगे। ग्रियर्सन साहब ने अनुमान लगाया हैं कि वे सम्भवतः पश्चिमी हिमालय के रहने वाले थे और उन्होंने नेपाल को आर्य अवलोकितेश्वर के प्रभाव से निकाल कर शैव बनाया था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार श्री गोरखनाथ निश्चित रूप से ब्राह्माण जाति में उत्पन्न हुए थे और ब्राह्माण वातावरण में बड़े हुए थे। तो वहीं ज्ञानेश्वरी में सन्त ज्ञानेश्वर ने श्री गोरखनाथ जी का स्मरण अपने गुरू निवृत्तिनाथ के गुरू गैनी या गहिनिनाथ के गुरू के रूप में किया है। 14 वीं सदी के स्वामी विद्यारण्यकृत 'शंकर दिग्विजय' नामक ग्रंथ से पता चलता हैं कि वे श्री शंकराचार्यजी के पूर्ववर्ती थे। इस ग्रंथ में शंकराचार्य जी ने अपने शिष्य से कहा हैं कि जैसे प्राचीन काल में मत्स्येन्द्रनाथ नाम के एक महात्मा योगी ने परकाया प्रवेश कर अपनी शरीर की रक्षा का भार अपने शिष्य गोरक्षनाथ को सौंपा था वैसे ही मैं तुम्हें परकाया प्रवेश के पहले अपनी शरीर की रक्षा का भार सौपता हूं। गोस्वामी यदुनाथ कृत 'बल्लभ दिग्विजय' ग्रंथ से भी महाप्रभु बल्लभाचार्यजी की पश्चिम यात्रा के सम्बन्ध में रैवतक पर्वत पर गोरखनाथ जी के श्री विग्रह के दर्शन का उल्लेख है।
नेपाल में आज भी निकाली जाती है मत्स्येन्द्रनाथ जी रथ यात्रा
नेपाल में गोरखनाथ जी के मेघेमालासनीकृत रूप की बड़ी महिमा है। कहते हैं कि एक समय नेपाल में विरोधियों के प्रचार के कारण नाथयोगियों को भिक्षा मिलना बन्द हो गयी। योगियों के त्रास की यह बात जब गोरक्षनाथ जी को ज्ञात हुई तब उन्होंने योगबल से मेधमालाओं को खींचकर अपनी जांघ के नीचे दबा लिया। परिणामतः सारे नेपाल में अकाल पड़ गया। चारों तरफ वर्षा न होने से अन्न के अभाव में त्राहि-त्राहि मच गयी। जानकारों ने राजा से बताया कि गोरखनाथ जी ने नाथ योगियों के प्रति राज्य में किये जा रहे दुर्व्यवहार से नाराज होकर बादलों को अपनी जॉघ के नीचे दबा रखा है। वे समाधिस्थ हैं और उन्हें योगासन से उठाकर बादलों को मुक्त कराने के लिये उनके गुरू मत्स्येन्द्रनाथ को उनके पास ले जाना होगा। राजा-प्रजा सब ने श्रीमत्स्येन्द्रनाथ जी को प्रसन्न कर उन्हें गोरखनाथ के पास चलने के लिये तैयार कर लिया। वे गये और गुरू को उपस्थित देखकर जब गोरखनाथ जी ने स्वागतार्थ उत्थान किया तब बादल भी छूटे और वर्षा भी हुई। इस घटना की स्मृति में आज भी नेपाल में मत्स्येन्द्रनाथ जी रथ यात्रा निकाली जाती । गोरखनाथ जी ने नेपाल में बाग्मती नदी के तटवर्ती सिद्धाचल पर मृगस्थली में विकट तप किया था। यहां आज भी नाथयोगियों का मठ है। नेपाल के वर्तमान शाह राजवंश पर गोरखनाथ जी की महती कृपा की कहानी भी प्रसिद्ध है। श्रीनाथ जी के आशीर्वाद से ही शाह राजवंश के संस्थापक महाराजा पृथ्वीनारायण शाह को वह शक्ति मिली थी जिसके बल पर उन्हें वाईसी और चौबीसी में बटे नेपाल को एकछत्र के नीचे संगठित करने में सफलता मिली। इसी उपकार की स्मृति में तब से आज तक नेपाल की राज-मुद्रा में श्री गोरक्षनाथ तथा राजमुकुटों में उनकी चरणपादुका का चिन्ह अंकित हैं।
आठवीं शताब्दी में मेवाड़ के हिन्दुआ सूर्य वाप्पारावल को गोरक्षनाथ जी ने वरदानी खड्ग प्रदान किया था, जिसके बल पर उन्होंने सुदूर खुरासान तक अपनी विजय पताका फहराई थी। विजयादशमी के अवसर पर आज भी इस खड्गा की पूजा होती हैं। नेपाल में एक प्रखण्ड दांग के राजकुमार रत्न-परीक्षक ने गोरक्षनाथ से दीक्षित होकर दीर्घायु का उपभोग करते हुए सिद्ध बाबा रतननाथ के नाम से एशिया के अनेक भागों को अपनी योगसिद्धियों से चकित कर दिया था। कहते हैं कि मुस्लिम धर्म प्रवर्तक हजरत मुहम्मद के साथ भी इन्होंने सत्संग किया था तथा हाजी रतननाथ के रूप में भी इनकी प्रसिद्धि थी। गोरखनाथ जी ने इन्हें शिष्य बनाकर एक अमृत पात्र दिया था। यह एक पाषाण लिंग हैं। कहते हैं इसमें श्रीनाथ जी की आत्मा प्रतिष्ठित है। दांग में एक विशाल मन्दिर का निर्माण कराकर रतननाथ जी ने इस अमृत पात्र की पूजा का उपक्रम किया जो आज तक प्रवर्तमान है। गोरखनाथ ने नेपाल और भारत की सीमा पर स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपाटन में महादेवजी की आज्ञा से तपस्या की थी।
-शेष अगले अंक में....
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