मकर संक्रांति पर विशेष का चतुर्थ अध्याय
गोरखनाथ पिछले अंक में हमने हिन्दू धर्म-दर्शन, साधना, नाथ सम्प्रदाय के सिद्धों या योगियों के साधना और योगज्ञान की महिमा के बारे बताया और उसके बाद नेपाल से गोरक्षमठ के संबंध के बारे में बताया गया थाऔर अब उसी कड़ी में पाटेश्वरी शक्तिपीठ की कहानी इस प्रकार है कि दक्ष यज्ञ में प्राणों की आहुति देने वाली सती माता के निष्प्राण शरीर को लेकर महादेव के भ्रमण करते समय देवी का पट वामकस्वन्ध सहित इसी पाटन पुण्य क्षेत्र में गिरा था। उसी स्थल पर पाटेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना का श्रेय गोरखनाथजी को है। जैसा कि देवीपाटन में उपलब्ध शिलालेख (1874 ई0) में अंकित है। तो वहीं पंजाब के पूरन भगत कैसे सिद्ध चौरंगीनाथ जी से नाम से महादेव समाज्ञाप्तः सती स्कन्धविभूषिताम्। लोक प्रसिद्ध हाए। इसका भी उल्लेख किया गया है। । गोरक्षनार्थीयोगीन्द्रस्तेने पाटे वरीमठम्।।
महायोगी गुरु गोरखनाथजी ने उज्जैनी राजा भर्तृहरि को अपना शिष्य बनाया था। भर्तृहरि नामक नाटक रचयिता हरिहर ने तो ऐसा लिखा ही है स्वयं भर्तृहरि ने अपनी एक सवदी : सतगंर सवदै सीधा भरथरी। गुरू गोरख वचन प्रमाणं जी।। में यह घोषणा की है। स्यालकोट के राजा सालिवाहन के पुत्र पूरन भगत की कहानी सारे पंजाब में और सुदर अफगानिस्तान तक प्रसिद्ध हैं। मियों कादरवार की लिखी हुई एक पंजाबी कहानी 'संग पूरन भगत' गुरूमुखी अक्षरों में छपी है। तद्नुसार पूरन भगत उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के वंशज उनके बाप-दादों ने स्याल कोट के थाने पर अधिकार कर लिया था। पूरन भगत यहीं के राजा सालिवाहन के पुत्र थे। उनकी लूना नामकी विमाता ने उनसे गलत संबंध बनाना चाहा किन्तु पूरन भगत ने अस्वीकार कर दिया। क्रुद्ध होकर विमाता ने अपने वंशवर्ती राजा का कान भरा और पूरन को अंधा बनाकर उसके हाथ-पैर तोड़वा कर कूप में डलवा दिया। उन्हें वहां से निकाल कर श्री मत्स्येन्द्रनाथ जी और गोरखनाथ जी ने अपने आशिर्वाद से पूर्ववत पुनः पूर्णाग बना दिया। पूरन की मां भी पुत्र वियोग में अंधी हो चुकी थी। गोरखनाथ जी के आशिर्वाद से सिद्ध बने पूरन ने पिता के पास लौटकर अपनी माता को भी दृष्टि दी। उसने अपनी विमाता को भी क्षमा कर दिया। पिता ने पूरन को राज्य देना चाहा किन्तु उन्हें तो वैराग्य हो चुका था। अतः वे राजपाट छोड़कर गुरू गोरखनाथ जी के पास लौट आए। वही पूरन भगत बाद में एक महान सिद्ध चौरंगीनाथ जी नाम से लोक प्रसिद्ध हुए। पंजाबी प्रेम कथाओं में योगी रांझा का नाम अमर है। हीर को पाने में असफल विरह विकल रांझा बाद में गोरखनाथ जी से तत्वज्ञान प्राप्त कर एक योगी बना। भर्तृहरि की बहन मैनावती और उसके पुत्र बंगाल के राजा गोपीचन्द्र ने भी गोरखनाथ जी से प्रभावित होकर योगदीक्षा ली थी। लोक प्रचलित इस कथा की पुष्टि गोरखवानी से भी होती है, जिसमें भर्तृहरि और गोपीचन्द्र दोनों के गुरू (गोरखनाथ) के उपदेश से योगसाधना में तत्पर परमपद में प्रतिष्ठित होने की चर्चा है।
गोरखनाथ जी उड़ीसा के एकक क्षत्रिय योद्धा विबुधेन्द्रमल्ल को भी उसका अज्ञान दूर कर योगदीक्षा प्रदान की थी जो बाद में योगीराज मल्लिकानाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सिन्धियों के परम आराध्य श्री झूलेलाल जी गोरखनाथ जी के शिष्य थे और सिख सम्प्रदाय के प्रवर्तक आदि गुरू नानकदेव जी ने तो जपुजी में गोरखनाथ जी को भी गुरूत्व में ब्रह्मा और विष्णु के समकक्ष बैठा दिया है। चौदहवीं सदी के सन्त कबीर से भी गोरखनाथ जी क प्रत्यक्ष संवाद की कथा लोक में प्रसिद्ध है। मगहर के पास आज भी एक जलाशय दिखाते हुए लोग कहते हैं कि यहीं गोरखनाथ जी और कबीर की भेंट हुई थी। विक्रम की सोलहवीं सदी में विद्यमान विनोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक जम्भनाथ (जम्भोजी), निरंजनी सम्प्रदाय के प्रवर्तक हरिदास निरंजनी तथा जसनाथी सम्प्रदाय के जसनाथ जी को भी महायोगी गोरखनाथ जी ने ही दर्शन और योग दिक्षा देकर कृतार्थ किया था। यह बात भी सर्वविदित है।
रमतायोगी श्री गोरखनाथ जी द्वारा अनेक स्थानों पर की गयी साधना और तपश्चर्या के कारण तीर्थ-स्थल बने अनेक स्थान आज भी मिलते हैं। उनके द्वारा स्थापित अनेक साधन केन्द्र आज तक विद्यमान है। जहाँ श्रद्धालु भक्तजन जुटते हैं, मेले लगते हैं। किन्तु गोरखनाथ जी की समाधि स्थली कहीं नहीं मिलती है। इसलिए गोरखनाथ जी के भक्तों और अनुयायियों का यह दृढ़ विश्वास है कि ये अब भी अमर योग शरीर से विद्यमान हैं और कभी-कभी भक्तों को दर्शन भी देते हैं।
-शेष अगले अंक में...
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