मकर संक्रांति पर विशेष का षष्टि अध्याय
पिछले अंक में हमने बताया कि कैसे नाथ सम्प्रदाय का योगमहाज्ञान की बढ़ती ख्याति को देव धर्मनिति कट्टर मुस्लिम शासको ने गोरखनाथ मंदिर को कई बार क्षति पहुंचाने की कोशिश की। वहीं महाराज मानसिंह के 'श्रीनाथतीर्थवली' पुस्तक में भी गोरखपुर का उल्लेव के बारे में बताया गया थायही नहीं इस मंदिर का वर्णन प्रेमारव्यानकार कवि उस्मान ने भी अपने “चित्रावली' में कैसे किया इसका भी उल्लेख किया गया थाअब गोरखनाथ मन्दिर का सुचारू रूप से जीर्णोद्धार कब किया गया। और मन्दिर के आकार-प्रकार के संवर्धन समलंकरण तथा मन्दिर से संबंधित उसी प्रांगण में स्थित अनेको विशिष्ट देवस्थानों के जीणोंद्वार, नवनिर्माण आदि में गोरखनाथ मन्दिर के महंतों द्वारा योगदान के विषय में भी जानकारी दी गई है। इसके अलावा इस मन्दिर के प्रथम महंत श्री वरदनाथ जी महाराज से लेकर वर्तमान के महंत योगी आदित्यनाथ तक का वर्णन किया गया है।
विक्रमीय उन्नीसवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में गोरखनाथ मन्दिर का सुचारू रूप से जीर्णोद्धार किया गया। तभी से निरन्तर मन्दिर के आकार-प्रकार के संवर्धन समलंकरण तथा मन्दिर से संबंधित उसी प्रांगण में स्थित अनेको विशिष्ट देवस्थानों के जीर्णोद्वार, नवनिर्माण आदि में गोरखनाथ मन्दिर के महन्तों द्वारा योगदान होता आ रहा है। वर्तमान गोरखनाथ मन्दिर की भव्यता और पवित्र रमणीयता लोकचिन्तन की अत्यन्त कीमती आध्यात्मिक सम्पत्ति है। इसके भव्य (श्री गोरखनाथ की योगसिद्धि-शक्ति के अनुरूप) गौरवमय निर्माण का श्रेय अत्यन्त महिमाशाली, भारतीय, संस्कृति के महान कर्णधार योगिराज महन्त दिग्विजयनाथ महाराज और उनके अत्यन्त सुयोग शिष्य योगदर्शन के गंभीर विद्वान ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज को है। इनके संरक्षण में गोरखनाथ मन्दिर की विशालकाय आकार-प्रकार और उसके प्रांगण की भव्यता समृद्धि तथा गरिमा का शब्दांकन नाथ परम्परा के ही इतिहास में नहीं, अपितु भारतीय वास्तुकला के क्षेत्र में भी एक मौलिक और श्रद्धास्पद प्रयास है। मंदिर के भीतरी कक्ष में मुख्य वेदी पर शिवावतार अमरकाय महायोगी गुरू गोरखनाथ जी महाराज की श्वेत संगमरमर की दिव्य मूर्ति ध्यानावस्थित रूप में प्रतिष्ठित है, इस मूर्ति का दर्शन मनोमोहक और चित्ताकर्षक है। यह सिद्धिमयी दिव्य योगमूर्ति है। श्री गुरू गोरखनाथ जी की चरण पादुकाएं भी यहां प्रतिष्ठित है। जिनकी विधिपूर्वक पूजा अर्चना की जाती है। प्रातः काल ब्रह्मबेला के पहले ही घण्टों, नगाड़ों के तुमुल घोष के साथ गुरु गोरखनाथ के दिव्य श्रीविग्रह की पूजा आरंभ हो जाती है, मध्यांह में भी पूजा का क्रम के साथ सायंकाल निश्चित समय से नियतकाल तक पूजा आरती की जाती है। प्रतिदिन मंदिर में भारत के सुदूर प्रान्तों से आये पर्यटको, यात्रियों और स्थानीय तथा पास- पड़ोस के असंख्य लोगों की भीड़ दर्शन के लिये आती रहती है। मंगलवार को दर्शनार्थियों की संख्या अप्रतशित रूप से बढ़ जाती है। मंदिर में गोरखनाथ जी की अनेक सब्दियां संगमरमर की भित्ति पर अर्थसहित अंकित है और नवनाथों के चित्रों का अंकन भी विद्यमान है। गोरखनाथ मंदिर के महंत योगीराज राजेश्वर गुरु गोरखनाथ जी के प्रतिनिधि के रूप में सम्मानित होते हैं। इस मन्दिर के प्रथम महन्त श्री वरदनाथ जी महाराज कहे जाते हैं। जो गुरू गोरखनाथ जी के शिष्य थे। महाराष्ट्र के संत-साहित्य के महान विद्वान ने अपने एक गुरु भाई को नियुक्त किया था।
ब्रिग्स ने (गोरखनाथ एण्ड कनपफटायोगीज) में उनका यह अभिमत उद्धृत किया है। बाबा परमेश्वरनाथ नाम के एक उत्यन्त प्रभावशाली महंत की महिमा का आज भी गुणगान किया जाता है। परन्तु बुद्धनाथ जी का नाम गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करने वालों में अग्रगण्य है। उनका समय 1708 ई. से 1723 ई. तक अनुमानित है। बाबा रामचन्द्रजी ने उनके बाद इस मन्दिर की व्यवस्था संभाली। तदनन्तर महंत पियारनाथ जी इस मठ के महन्त थे। फिर बालकनाथ जी इस मठ के महंत हुए। बालकनाथ जी के ब्रह्मलीन होने के बाद योगी मनसानाथ जी पचीस वर्षों तक इस मठ के महंत पद को सुशोभित करते रहे। उनके पश्चात् 1711 ई. से 1831 ई. तक संतोषनाथ जी महाराज और 1831 से 1855 ई. तक मेहरनाथ जी महाराज ने महंत पद को अलंकृत किया। तत्पश्चात् 1855 से 1916 ई. तक उनके शिष्य दिलवरनाथ जी महंत पद संभाला। 1916 ई. में उनके उत्तराधिकारी महंत सुन्दरनाथ जी महाराज महंत पद पर अधिष्ठित हुए। उन्हीं के महंत काल में लम्बे अरसे तक सिद्धपुरूष योगीराज बाबा गम्भीरनाथ जी महाराज महंत पद का दायित्व संभालते रहें तथा मंदिर की शांतिपूर्ण व्यवस्था में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। श्री सुन्दरनाथ जी के ब्रह्मलीन होने पश्चात् योगीमूर्ती बाबा ब्रह्मनाथ जी महाराज, जो योगिराज गंभीरनाथ जी के प्रमुख शिष्य थे, जो महंत पद पर अभिषिक्त हुए। ब्रह्मनाथ जी बड़े तेजस्वी, शान्त और गम्भीर योगी थे। 1934 में बाबा ब्रह्मनाथ जी के समाधिस्त होने पर योगीराज श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज ने 35 साल तक महंत पद को समलंकृत किए। श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज के ब्रह्मलीन होने के बाद 27 सितम्बर 1969 सुयोग्य शिष्य महंत अवेद्यनाथ जी महाराज गोरक्षपीठाधीश्वर के पद पर अधिष्ठित हुए। उत्तराधिकारी की गद्दी पर कृपाल सिंह बिष्ट को गोरक्षमठ में आठ फरवरी 1942 को महंत दिग्विजयनाथ ने नाथ पंथ की दीक्षा दिए जाने के साथ ही “अवेद्य” नाम दिया। यहीं से महंत योगी अवेद्यनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए। 12 सितम्बर 2014 की शाम 8 बजे परम पूज्य महंत अवेद्यनाथ जी ने इस संसार को अलविदा कह दिया। ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी को 14 सितम्बर को गोरखनाथ मंदिर के दक्षिणी क्षोर में ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ के बगल में समाधि दी गई। परम पूज्य गोरक्षपीठाधीश्वर ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी ने 45 वर्षों तक गोरक्षपीठ के महंत पद को समलंकृत किए। वर्तमान में गोरक्षपीठ की गद्दी संभाल रहें अजय सिंह बिष्ट को महंत अवेद्यनाथ ने 15 फरवरी 1994 को अपना उत्तराधिकारी बनाने के साथ “आदित्य” नाम दिया। जो महंत के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के बीस करोड़ लोंगो के मुखिया भी हैं।
-शेष अगले अंक में
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