मकर संक्रांति पर विशेष का पंचम अध्याय
पिछले अंक में हमने कबीरदासजी द्वारा महायोगी गुरु गोरखनाथजी अमरता के बारे में कही गई बातें बताया गया। इसके अलावा योगसाधनाओं और योग सिद्धि के बारे में बताया गया थाअब गोरखनाथ जी के रचनाओं का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा गोरखपुर कैसे बनी महायोगी का तपोस्थली और कांगड़ा से गोरखपुर के रिस्ते के बारे में भी बताया गया है। महायोगी के तप-जप से नाथ सम्प्रदाय का योगमहाज्ञान एशिया सहित पुरी दुनिया को प्रभावित किया। इस बढ़ती ख्याति को देख धर्मनिति कट्टर मुस्लिम शासको ने गोरखनाथ मंदिर को कई बार क्षति पहंचाने की कोशिश की। परन्त करोड़ों लोंगो के आस्था-श्रद्धा का केन्द्र गोरखनाथ मंदिर पूजा-पद्धति से पवित्रता पर किसी भी प्रकार का आयात असम्भव था। जहां महाराज मानसिंह ने अपनी 'श्रीनाथतीर्थवली पुस्तक में गोरखपुर का उल्लेख किया है। वहीं इस मंदिर का वर्णन प्रेमारव्यानकार कवि उस्मान ने भी अपने “चित्रावली” में किया है
योगी को साधना में तत्पर रहकर धैर्यपूर्वक अल्पाहार का सेवन करते हुए एकान्त का आश्रय लेकर चिन्तन करना चाहिए जो संसार रूपी रोग को हरने वाला प्राणोपम अद्वितीय अमृत है। (योगबीज 102) में उन्होंने कहा है कि ज्ञान ही सबसे बड़ा गुरू है, चित्त ही सबसे बड़ा चेला अतः ज्ञान और चित्त का योग सिद्ध कर जीव को जगत् में अपने पारमार्थिक स्वरूप परम शिव में प्रतिष्ठित रहना चाहिए। यही श्रेय अर्थात् परम कल्याण का पंथ हैं। गोरखनाथ जी द्वारा प्रचारित योग का महत्व इसलिए भी अधिक आदणीय है। क्योंकि उन्होंने योग को वामाचार के पंथ से निकालकर इसे पुनः सात्विक सदाचार और सद्विचार की भूमि पर प्रतिष्ठि किया है। उन्होंने अतियों से बचते हुए 'सहजै रहिबा' पर जोर दिया और जैसा कि पाश्चात्य विद्वान एलपी टेशीटरी ने कहा है कि गोरखनाथ के धर्म (योग) का प्रधान वैशिष्ट्य है। इसकी सार्वजनीनता, इसी धर्म का द्वार सबके लिये खुला है।
गोररवनाथ जी की रचनाएं
योगाचार्य श्री गोरखनाथ जी ने संस्कृत और लोकभाषा दोनो में योगपरक-साहित्य का सजन किया है। गोरक्ष कल्प, गोरक्ष-संहिता, गोरक्ष-शतक, गोरक्ष-गीता, विवेकमार्तण्ड, गोरक्षशास्त्र, ज्ञानप्रकाश-शतक, ज्ञानामृतयोग, महार्थमंजरी, योगचिंतामणि, योगमार्तण्ड, योगसिद्धान्त-पद्धति, अमनस्कयोग, श्रीनाथसूत्र, सिद्धसिद्धान्तपद्धति, हठयोग-संहिता, प्राणसंकली तथा डॉ. पीतांबरदत्त बडप्वाल द्वारा संपादित गोरखवानी में संग्रहीत रचनाएं उनकी प्रसिद्ध कृतित्व और व्यक्तिव की महनीयता का पता चलता है।
श्रीनाथतीर्थवली
योगेश्वर गोरखनाथ ने भगवती राप्ती के तटवर्ती नगर (जो उन्हीं की पण्यस्मति में उन्हीं के नाम विख्यात हैं।) में त्रेतायुग में तपस्या की थी। उनकी तप स्थली के निकट मानसरोवर स्थान है जहां आज भी उनकी साधना का स्मारक हैं। वे ज्वाला देवी के स्थान से खिचड़ी की भिक्षा मांगते हुए गोरखपुर पधारें थे। महाराज मानसिंह ने अपनी 'श्रीनाथतीर्थवली' पुस्तक में गोरखपुर का उल्लेख करते हुए कहा है कि गोरखपुर नाम का उत्तम स्थान है। उसके उत्तर (भाग) में पुण्याप्रद गोरक्षनाथ जी का स्थान है, श्रीराम जी के त्रेतायुग में अवतार में इस स्थान का वर्णन उपलब्ध होता है। इस स्थान से एक कोस (तीन किलोमीटर) पर इरावती (जो आज राप्ती नदी है) नदी बहती है, यहां श्री गोरखनाथ जी की काष्ठपादुका विद्यमान हैं। इस तीर्थवरेण्य को बार-बार नमस्कार हैं। गोरखनाथमन्दिर का वर्णन मध्यकालीन प्रेमाख्यानकार कवि उस्मान ने चित्रावली में भी किया है। जिससे पता चलता है कि मंदिर के वातावरण में अनवरत योग- साधना का क्रम चलता रहा है। गोरखनाथ मन्दिर का भव्य निर्माण उसी पवित्र स्थान पर सम्पन्न हुआ हैं, जहां ज्वाला देवी के स्थान से परिभ्रमण करते हुए आकर गोरखनाथ जी ने तपस्या की थी। इसके निकट ही मानसरोवर नामक तड़ाग से इसकी पवित्रता और दिव्यता जन-मानस को आज भी प्रेरित करती आ रही है। गोरखनाथ-मन्दिर बावन एकड़ के सुविस्तृत क्षेत्र में स्थित हैं तथा सुन्दर आकर्षक वृक्षो, फूलों और हरी घास के सुंदर मैदानों से इसकी रमणीयता नित्य निरन्तर बढ़ती रहती हैं। ऐतिहासिक अनुशीलन करने पर पता चलता हैं कि गोरखनाथ-मन्दिर का रूप. आकार-प्रकार समय-समय पर परिस्थितियों और सुविधा के अनुसार बदलता रहा है। भारत में मुस्लिम राजत्व के प्रारम्भिक चरण में इस मन्दिर से प्रवाहित यौगिक साधना की लहर संमग्र एशिया में फैल रही थी। जिस तरह भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिष्ट तत्वज्ञान चीन, जापान में सम्राट अशोक, कनिष्क और हर्ष के शासनकाल में भरतीय प्रतिष्ठा का मानदण्ड बन गया था। ठीक उसी तरह विक्रम की आठवीं शताब्दी के पहले से ही नाथ सम्प्रदाय का योगमहाज्ञान बड़ी तेजी से भारतीय सीमा को लांघ कर करोड़ोंकरोड़ों लोगों को संतृपत कर रहा था। इस पवित्र कार्य में गोरखनाथ मन्दिर से प्रस्फुटित आध्यात्मिक योगज्ञानरश्मि की भूमिका महनीय तथा स्पष्ट है।
धर्म और सांस्कृति पर खिलजी और औरगजेब ने पहुचाया चोट
ऐसी स्थिति में विदेशी यवनशासको की कुदृष्टि गोरखनाथ मन्दिर की ओर गयी और उन्होंने इसके पवित्र साधनपरक कार्य में अवरोध उपस्थित करने के लिये उत्तरांचल के इस महत्तम योगदुर्ग का ध्वंस अपने साम्रज्य-विस्तार के लिए एक अत्यन्त और ऐतिहासिक उपक्रम समझा। विक्रमीय चौदहवीं सदी में भारत के मुस्लिम सम्राट खिलजी ने अपनी कट्टर धर्मनिती से प्रभावित होकर गोरखनाथ मंदिर गोरखपुर को ध्वस्त करने का उपक्रम किया तथा आगे चलकर विक्रमीय सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के सन्धिकाल में अपनी धार्मिक कट्टरता के लिये इतिहास प्रसिद्ध सम्राट औरंगजेब ने अलाउद्दीन खिलजी की तरह मन्दिर को ध्वस्त करने में अपनी शक्ति का प्रयोग किया। परन्तु गोरखनाथ मन्दिर पूजा-पद्धति, धार्मिक आचार-विचार और सार्वजनिक श्रद्धा, उसकी पवित्रता पर किसी भी प्रकार का आघात असम्भव था। इस मन्दिर के यवन-शासकों द्वारा क्षतिग्रस्त किये जाने पर भी इसके पुनःनिर्माण में मन्दिर के संरक्षकों और योगार्चायों ने किसी भी तरह का व्यवधान नहीं उपस्थित होने दिया।
-शेष अगले अंक में...
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