गुरू-शिष्य परम्परा का पर्व है गुरूपूर्णिमा

गोरखपुर। प्रत्येक वर्ष गुरू के चरणों में गुरू पूर्णिमा के दिन कुछ श्रद्धांजलि भेंट करने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है।



आचार्य पं. शरद चंद्र मिश्र के अनुसार आमतौर से इस दिन शिष्यगण अपने गुरूओं को यज्ञोपवीत, फल, अन्न तथा पैसा गुरू दक्षिणा के रूप में समर्पित करते हैं। रोली,पुष्प,कलावा से सम्मानित करते हैं। पर इतना पर्याप्त नही है। हमारा कल्याण तभी हो सकता है, जब हम सद्गुरूओं की शिक्षाओं को हृदयंगम करें और उनके मार्गदर्शन के अनुसार अपना जीवन ढालें। जो बुराई है उसका आत्मावलोकन कर निष्कासित करें और श्रेष्ठ गुणों को अपने अन्दर आत्मसात करें। गुरूपूर्णिमा को अनुशासन पर्व भी कहा जाता है। सामान्य रूप से अच्छे आचरण वाले गुरूजनों का अनुशासन स्वीकार करें। गुरूओं को भी अपना जीवन क्रम ऐसा बनाकर रखना चाहिए कि शिष्य वर्ग में उनके प्रति सहज श्रद्धा-सम्मान का भाव जागृत हो। यह भी है कि सिखने वाला शिष्य भी गुरूजनों का सम्मान और अनुशासन बनाये रखे। इसलिए प्रचीन काल में इसको अनुशासन पर्व की संज्ञा प्रदान की गयी। अनुशासन मानने वाला ही शासन कर सकता है। यह तथ्य समझे बिना राष्ट्रीय और आत्मिक प्रगति सम्भव नही है। गुरूपूर्णिमा पर व्यास पूजन का भी क्रम है व्यास की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जो स्वयं चरित्रवान है और वाणी और लेखनी से प्रेरणा संचार करने की कला भी जानते हैं, ऐसे आर्दश निष्ठ विद्वान को व्यास संज्ञा से विभूषित हैं। गुरू व्यास भी होता है। इसीलिए गुरूपूजा को व्यास पूजा भी कहते हैं।


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