- भारतीय विद्वत महासंघ और गोरखनाथ संस्कृत विद्यपीठ द्वरा मनाई जाती है संस्कृत पूजन
- गोरखनाथ के भीम सरोवर पर मनाई जाती है श्रावणी उपाकर्म और ऋषि पूजन
- श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म एवं सप्त ऋषि पूजन मनाने का विधान है।
भारतीय विद्वत महासंघ के उपाध्यक्ष राजेश कुमार मिश्र के अनुसार श्रावण मास की पूर्णिमा पर एक और जहां रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है। तो वहीं दूसरी ओर इस दिन श्रावणी उपाकर्म भी मनाया जाता है। श्रावणी उपाकर्म संस्कृत दिवस के रूप में मनाई जाती है। श्रावणी उपाकर्म वैदिक ब्राह्मणों को वर्ष भर में आत्म शुद्धि का अवसर प्रदान करता है। वैदिक परंपरा अनुसार वेद पाठी ब्राह्मणों के लिए श्रावण मास की पूर्णिमा सबसे बड़ा पर्व है। इस दिन यह जवानों के लिए कर्मकांड यज्ञ हवन आदि करने की जगह खुद अपनी आत्म शुद्धि के लिए अभिषेक और हवन किए जाते हैं।
गोरखपुर। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को संस्कृत दिवस एवं उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान किए जाते हैं। इस दिन सुबह दैनिक क्रीरियाओं से निवृत्त होने के बाद स्नान करते हैं। फिर कोरे जनेऊ की पूजा की जाती हैं।
गोरखनाथ मंदिर के मुख्य पुरोहित वेदाचार्य पंडित रामानुज त्रिपाठी ने बताया कि जनेऊ की गांठ में ब्रह्म स्थित होते हैं। उनके धागों में सप्तऋषि का वास माना जाता है।
वेदाचार्य श्री त्रिपाठी ने कहा कि ब्रह्मा और सप्तऋषि पूजन के बाद नदी या सरोवर में खड़े होकर ब्रह्मकर्म श्रावणी संपन्न की जाती है।
उन्होंने कहा कि पूजा के बाद उसमें शामिल जनेऊ में से एक जनेऊ पहनने के बाद बाकी जनेऊ रख ली जाती है। जो पूरे वर्ष भर आवश्यकता अनुसार श्रावणी उपाकर्म के पूजन वाले जनेऊ को ही धारण करते है।
भारतीय विद्वत महासंघ और गोरखनाथ संस्कृत विद्यापीठ के तत्वधान में ऋषि पूजन एवं श्रावणी उपाकर्म गोरखनाथ मंदिर परिसर स्थित भीम सरोवर पर विगत कई वर्षों से मनाया जाता है।
महासभा के अध्यक्ष पं शरद चन्द्र मिश्र के अनुसार श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष होते हैं। प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। इसके तहत आयोजित हेमाद्रि स्नान संकल्प में गुरू के सानिध्य में ब्रह्मचारी, गोदुग्ध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्ष भर में जाने-अनजाने में हुए पापों का प्रायश्चित कर जीवन में सकारात्मकता भरते हैं। स्नान के बाद ऋषि पूजन, सूर्योपास्थान एवं यज्ञोपवीत के बाद नया जनेऊ धारण करते हैं। इस संस्कार की व्यक्ति का दूसरा जन्म माना जाता है।
स्वाध्याय की शुरूआत सावित्री ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदस्पति, अनुमति, छंद, और ऋषि को घी की आहुति से होती है। इसके बाद जौ-आटे में दही मिलाकर ऋगवेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं।
इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या छह माह तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान किए जाते हैं।
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