कुम्हारों के चाक की गति धीमी ?


दीपावली पर्व सर पर है परन्तु कुम्हार के चाक की रफ्तार धीमी ही है। मैंने बचपन से कुम्हारों को दशहरा के पहले से ही दिन रात काम करते देखा है वे तरह तरह के खिलौने , मिट्टी के दीए और कुल्हड़ को बनाने में तल्लीन रहते थे । रोजी-रोटी बेहतर तो नहीं पर ठीक-ठाक था। समय बदला आधुनिकता की दौड़ में मिटटी के गिलास और कुल्हड़ की जगह को प्लास्टिक ने जब ले लिया तो कुम्हारों की चाक पर ग्रहण ही लग गया , फिर पड़ोसी राष्ट्र चीन से आया रंगीन झालर। उसने दीए की रोशनी कम कर दी। जो कुम्हार रात दिन मेहनत करके लाखों दीए बनाते थे उनकी संख्या हजारों में रह गयी।


वर्तमान में करोना महामारी ने उनकी कमर तोड़ दी। चाक की रफ्तार रुक गयी। खाने के लाले पड़ने लगे। इस कारोबार से जुड़े लोगों ने सोचा था इस दीपावली में व्यापार कुछ गति पकड़ेगी परन्तु ऐसा नहीं हुआ। मिट्टी के दीए, खिलौने, मुर्ति की मांग कम ही है ।रेलवे स्टेशन ,ट्रेन आदि में पहले कुल्हड़ में चाय की चलन कुम्हारों को कुछ राहत देती थी परन्तु वो भी बंद है । आजकल प्लास्टर आफ पेरिस की गणेश लक्ष्मी की व अन्य मुर्तियां बाजार में आ गयी है। बाजार तरह तरह के रंगीन झालरों , बत्तियों से भरा है । लाभांश कम होने और मिट्टी की अनुपलब्धता इन सब मुश्किलों के देखकर नवयुवक अपने पुस्तैनी कारोबार से विमुख हो रहें हैं।


दीपक चक्रवर्ती "निशान"


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