सूर्य षष्ठी व्रत का प्रचलन निरन्तर सम्वृद्धि को प्राप्त होता चला जा रहा है। बिहार प्रान्त से समुद्भूत यह पर्व अब देश-विदेशों तक प्रसरित हो गया है। यह महोत्सव बिहार की एक पहचान बन चुका है। जिस देवी की उपासना के सन्दर्भ मे यह व्रत प्रचलित है, उसका हमें पुराणों और प्राचीन कथाओं में दिग्दर्शन होता है। आदि प्रकृति या मूल प्रकृति के छठें अंश से जिस देवी का प्रादुर्भाव हुआ, उसे षष्ठी देवी कहा जाता है। ॠगवेद के दशम मण्डल के सूक्त 125 मन्त्र प्रथम मे पराम्बा अपने मुख से कहती है कि "अहं रूद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरूत विश्वदेवैः। "अर्थात ग्यारह रूद्रों, आठ वसुओ, बारह सूर्यों एवं विश्वदेवों में उनके रूप मे विचरण करती हूँ। षष्ठी व्रत मे षष्ठी देवी के साथ सूर्य की पूजा की जाती है। इस व्रत मे पूजन की समस्त सामग्री जोड़े मे खरीदी जाती है। उसका एक भाग षष्ठी देवी पूजा और दूसरा भाग सूर्य की पूजा में रखा जाता है। उसको सूर्यार्घ्य मे सूर्य को अर्पिता किया जाता है। इस व्रत में साक्षात सूर्य की प्रातःकालीन आभा का देवी के रूप में दर्शन कर व्रती अपने को धन्य मानते हैं। शुम्भ-निशुम्भ-वध के समय देवताओं ने स्तुति की थी। देवी का वर्ण प्रातःकालीन सूर्यप्रभा के समान नारंगी है। प्रातःकालीन दिवाकर की आकृति के रूप में देवी षष्ठी को माना जाता है। इसलिए षष्ठी देवी के साथ सूर्य की पूजा की जाती है। नवजात शिशु के छठवें दिन छठियार (षष्ठी-महोत्सव) मनाने की प्रथा भारत के अधिकांश भागों में है। उस दिन भी षष्ठी माता की पूजा की जाती है। इन्हें विष्णुमाया या बालदा भी कहा जाता है। मातृकाओ में ये देवसेना कहलाती है। देवसेना नाम पड़ने के पीछे कारण है कि प्राचीन काल में जब देवता दैत्यों से पराजित हो गये तो इन्होंने स्वयं सेना लेकर देवताओं के पक्ष मे युद्ध किया था। इनकी कृपा से देवताओं की विजय हुई, तभी से इनका नाम देवसेना पड़ गया। मूलतः ये ब्रह्मा जी की मानस कन्या हैं। इनकी कृपा से सन्तान से हीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र तथा मनोहारिणी कन्या प्राप्त करते हैं। नवजात शिशुओं की ये साक्षात माता हैं। ये सिद्धयोगिनी देवी अपने योग योग बल से बच्चों के पास सर्वदा विराजमान रहती है। अतः अपने बालकों की रक्षा, उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु और अभ्युदय की कामना से षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। वेदों मे भी षष्ठी देवी को पराशक्ति रूप मे बताया गया है जो कामनाओं की अधिष्ठात्री देवी हैं। इस सन्दर्भ में ब्रह्मवैवर्त प्रकृति खण्ड और देवी भागवत में समान रूप से एक कथा प्राप्त होती है।
षष्ठी देवी के माहात्म्य की कथाएँ
स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत समस्त पृथ्वी के राजा थे। ब्रह्मा की आज्ञा से सृष्टि रचना हेतु उन्होने विवाह किया, परन्तु उन्हें सन्तान की प्राप्ति न हो सकी। कश्यप ॠषि ने उनसे पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। फलतः उनकी पत्नी मालिनी से एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। संयोगवश पुत्र मरा हुआ था। उस मृत पुत्र को देखकर रानी बेहोश हो गयी और महाराज भी शोक में पड़ गये। राजा की यह स्थिति देखकर मन्त्रियों ने बहुत समझाया, किन्तु राजा आश्वस्त न हो सके। किसी प्रकार से मरे पुत्र को लेकर श्मशान मे गये। वहाॅ मृत पुत्र को छाती से लगाकर रोने लगे। तभी उन्हे अन्तरिक्ष में उन्हें एक उज्जवल विमान दिखायी पड़ा, जिस पर श्वेत चम्पा पुष्प के समान एक देवी बैठी दिखाई दीं। उन्हें देखकर राजा को अपार शान्ति की अनुभूति हुई। देवी राजा के पास आयीं और कहने लगीं "हे राजन म
उसके बाद देवी ने राजा से कहा कि-"तुम्हारा यह पुत्र सभी गुणों से युक्त त्रिकाल द्रष्टा तथा योगियो-तपस्वियों मे भी सिद्ध होगा। इसका नाम सुश्रुत होगा। इसे पूर्व जन्म की सभी बातें याद रहेगी। "इतना कहकर देवी उस पुत्र को लेकर आकाश मे जाने के लिए उद्यत हुईं, तो राजा ने देवी से प्रार्थना की। इस पर देवी ने राजा से कहा "राजन!तुम मेरी सर्वत्र पूजा कराओ और स्वयं भी करो।" राजा द्वारा सहर्ष स्वीकार लेने पर, देवी ने वह पुत्र राजा को सौंप दिया। देवी के आदेश से राजा और प्रजा द्वारा षष्ठी देवी का भव्य पूजन आरम्भ किया गया।
भविष्योत्तर पुराण में जनमेजय-वैशम्पायन -सम्वाद में एक कथा है कि पाण्डव द्रौपदी के साथ वन में रहते थे तो उन्हे बड़ा कष्ट हो रहा था। अतिथियों के आने पर सत्कार करना कठिन था। द्रौपदी अपने पुरोहित धौम्य के पास जाकर आर्तवाणी मे बोली "ॠषिवर!कम समय में महान फल देने वाला कोई महान व्रत बताइये, जिससे कष्ट निवारण हो सके। द्रौपदी की वाणी सुनकर धौम्य ने सुकन्या और च्यवन ॠषि की कथा सुनाते हुए कहा- पिता शर्याति द्वारा सुकन्या का च्यवन ॠषि द्वारा विवाह कर देने पर वह पति की सेवा मनोयोग से करने लगी। एक समय कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को वह कश्यप ॠषि के आश्रम के पास पुषकरिणी (छोटे तालाब) में जल लाने के लिए गयी। वहाँ बहुत सी नाग कन्याएॅ षष्ठी देवी के साथ सूर्य का पूजन कर रही थीं। कौतूहल वश वहाँ जाकर सुकन्या ने उन नागकन्याओं से पूछा "आप कौन हैं? यहाँ किस कारण से आयी हैं?" इस पर नागकन्याओं ने बताया कि" हम लोग आज रविषष्ठी का व्रत कर रही है। "सुकन्या ने जिज्ञासा के साथ पूछा कि इस व्रत का फल, प्रभाव और विधि क्या है? तब नागकन्याओं ने कहा
- कार्तिकस्य सिते पक्षे षष्ठी वै सप्तमी युति।
- तत्र व्रतं प्रकुर्वीत सर्व कामार्थ सिद्धये।।
- पंचम्यां नियमं कृत्वा व्रतं कृत्वा विधानतः।
- एकाहारं हविष्यस्य भूमौ शय्यां प्रकल्पयेय।।
- षष्ठयामुपोषणं कुर्यात् रात्रौ जागरणं चरेत्।
- मण्डपं तु चतुर्वर्णं पूजयेत् दिन नायकंम्।।
- तावदुपोषणं कुर्यात् यावत् सूर्यस्य दर्शनम्।
- सप्तम्यामुदिते सूर्यं दद्यादर्घ्यं विधानतः।।
अर्थात् कार्तिक के शुक्ल पक्ष की षष्ठी युत सप्तमी को सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। पंचमी तिथि को व्रती नियम पूर्वक रहकर सायंकाल खीर का भोजन करे और धरती पर शरन करे। छठी के दिन व्रत रहकर हरे, लाल, नीले और नारंगी र॔गो का सुशोभित मण्डप बनाकर उसमे पूजा करे। रात मे जागरण करना चाहिए और अनेक प्रकार के फल तथा पकवान का नैवेद्य लगाकर गीत-वाद्य के साथ सूर्य-नारायण और षष्ठी देवी का पूजन कर उत्सव मनाने चाहिए। भगवान सूर्य का निम्न मन्त्रों से अर्घ्य देना चाहिए।
- नमो भगवते तुभ्यं नमस्ते जातवेदसे।
- दत्तमर्घ्यं मया भानो त्वं गृहाण नमोस्तु ते।।
- एहि सूर्य सहस्त्रांसो तेजो राशे जगत्पते।
- अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।
अर्घ्य दूध, दही, फूल, फल और चन्दन के साथ देना चाहिए। व्रत का उद्यापन भी विधिपूर्वक करें। कथा सुनकर ब्राह्मणों को उचित दक्षिणा देने से वाॅच्छित फल की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि द्रौपदी इस व्रत को प्रवास के दरम्यान की और सभी दुःखो और कष्टों से विमुक्त हुई थी।
षष्ठी देवी की पूजा जल के किनारे की जाती है। इसके पीछे भी कारण है। देवी कात्यायनी जिसे षष्ठी देवी कहा जाता है, उनका जल से अगाध प्रेम था। इस व्रत का उत्सव उत्तर भारत के पूर्वी भाग में (बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग) तथा बांग्लादेश के पश्चिमी भाग में अत्यन्त श्रद्धा एवं विश्वास के साथ मनाया जाता है। इस महोत्सव मे कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से सप्तमी तक पूजा का विधान हैं। श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के साथ जो लोग मान षष्ठी देवी के साथ सूर्य की पूजा करते हैं, उन व्रतियो की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है, इसमे सन्देह नही है। सच्ची आराधना देवता को आकर्षित करती है।
आचार्य पं शरदचन्द मिश्र, अध्यक्ष-रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी गोरखपुर।
Comments