शिवगोरक्ष के रूप में अवतरण

महासिद्ध हठयोगी गुरु गोरखनाथजी के जन्म, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। एक बार गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भिक्षा मांगने के लिए अयोध्या के पास जयश्री नगर में एक ब्राह्मण के घर पहुंचे। भिक्षा देती हुई ब्राह्मणी के मुख पर उदासी देवकर उन्होंने इसका कारण पूछा। ब्राह्मणी ने बताया कि निःसंतान होने से उसे संसार फीका जान पड़ता है।गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने झोली से भभूत निकालकर ब्राह्मणी को देते हुए कहा-'इसे रवा लो, तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। ब्राह्मणी की पड़ोसन को जब यह बात पता चली को उसने ब्राह्मणी को कई तरह के डर दिरवाकर भभूत रवाने से मना कर दिया। ब्राह्मणी ने भभूत गड्डे में फेंक दी। बारह वर्ष बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने पुनः उस घर के द्वार पर आकर 'अलरव' जगाया। ब्राह्मणी के बाहर आने पर उन्होंने कहा कि अब तो तेरा बेटा बारह वर्ष का हो गया होगा, देखू तो, वह कहां है? ब्राह्मणी ने घबराकर उन्हें सारी बात बता दी। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ब्राह्मणी को साथ लेकर उस गड्डे के पास गए जहां उन्होंने 'अलरव' शब्द का उच्चारण किया था। उसे सुनते ही बारह वर्ष का एक तेजस्वी बालक वहां प्रकट हो गया और गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के चरणों में बैठ गया। मत्स्येन्द्रनाथ ने बालक को अपने साथ रखा और योग की पूरी शिक्षा दीयही बालक आगे चलकर गुरु गोरक्षनाथ कहलाया। योगसाधना और वैराग्य में वे अपने गुरु से भी आगे बढ़ गये और योगबल से उन्होंने चिरंजीव स्थिति को प्राप्त किया। सत्य है कि उनकी उत्पत्ति किसी गर्भ से नहीं हुई थी। वे अयोनिज शिवगोरक्ष के रुप में स्वयं अवतरित हुए थे। किया भक्त सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। 


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