श्रीगणेश व्रत -पूजा की है महिमा अमित



आचार्य पंडित शरद चन्द्र मिश्र,

चैत्र मास की इस व्रत के पूजन मे ब्राह्मणों और विद्वानों का विशेष समादर करना चाहिए। इसी प्रकार शंख दान, ज्येष्ठ मे फल-फूल का दान, आषाढ़ मे सन्यासियो को भोजन, श्रावण मे लड्डू, भाद्रपर मे गोदान, आश्विन मे घी का दान, कार्तिक में वस्त्र दान, मार्गशीर्ष और पौष मे सुवर्ण दान, माघ मे तिल दान और फाल्गुन में श्रीगणेश जी की मूर्ति का दान महान फलदायी कहा गया है।अमित महिमामयी चतुर्थी व्रत में "चतुर्थी व्रत कथा श्रवण" की बड़ी महिमा है। पौराणिक कथाओ के अतिरिक्त अनेक प्रान्तों में परम्परागत कुछ लोक कथाएं भी कही और सुनी जाती है।वे सभी भगवान गणेश जी की प्रीति प्रदान करने वाली हैं।

श्री गणेश जी समस्त विघ्न विनाशक, विद्या, बुद्धि, सम्पन्नता और समस्त कामनाओ को पूर्ण करने वाले हैं इनकी पूजा समस्त मांगलिक कार्यों में प्रथम होती है। श्रीगणेश जी की पूजा न केवल मनुष्य करते है, प्रत्युत देवगण भी प्रत्येक कार्यों के आरम्भ में करते है। भगवान शंकर ने त्रिपुर राक्षस को जीतने के लिए, भगवान श्रीविष्णु ने राजा बलि को बाॅधने के लिए, ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के लिए, शेष जी पृथ्वी को धारण करने के लिए, पार्वती (दुर्गा) जी महिषासुर का वध के समय, सिद्ध लोग अपनी सिद्धि के लिए, कामदेव ने विश्व विजय निमित्त सर्वप्रथम श्रीगणेश जी का ध्यान एवं पूजन किया था। श्रीगणेश पुराण में कहा गया है-

  • "जैतुं यस्त्रिपुरं हरेण हरिणा व्याजात् बलिं बध्नता 
  • स्रष्टं वादिभवोद् भुवनं शेषेण धर्तुं धराम्।।
  • पार्वत्या महिषासुर प्रमथने सिद्धाधिपैःसिद्धये।
  • ध्यतः पंचशरेण विश्वविजये पापात्स नागाननः।।"

-श्रीगणेश जी की ॠद्धि और सिद्धि  नाम की दो पत्नियाँ और लाभ एवं शुभ नामक दो पुत्र है।इस प्रकार पांच सदस्यों वाला श्रीगणेश जी का परिवार है।यद्यपि गणेश जी कृपा प्राप्ति निमित्त और भी व्रत है किन्तु समस्त व्रतो में गणेश चतुर्थी प्रधान है।चतुर्थी महीने मे दो बार शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष में आती है।इसमें शुक्ल पक्ष की चतुर्थी "वरद चतुर्थी "के नाम से जानी जाती है।यह तिथि मध्याह्न व्यापिनी ली जाती है।इस दिन निराहार व्रत रखकर श्रीगणेश जी की पूजा-उपासना करने से व्रती की प्रत्येक कामना पूरी होती है और अन्त में वह अतिशय सुखदायक श्रीगणेश धाम को प्राप्त करता है।कृष्ण पक्ष की चतुर्थी चन्द्रोदय व्यापिनी ग्रहण की जाती है।उस दिन व्रती को निराहार रखकर रात्रि में चन्द्रोदय होने पर पूजन के पश्चात ब्राह्मण के साथ उन्हे भोजन कराकर स्वयं भोजन करें।

इस व्रत का माहात्म्य :

भविष्यपुराण में ऐसा कहा गया है कि जब-जब मनुष्य भारी संकट में हो,संकटों और मुसीबतों से घिरा महसूस करें या निकट भविष्य में किसी अनिष्ट की आशंका हो तो उसे संकष्टी चतुर्थी का व्रत करना चाहिए। इससे इस लोक और परलोक में सुख मिलता है। इस व्रत को करने से व्रती के समस्त कष्ट दूर हो जाते है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। मनुष्य वाॅछित फल पाकर अन्त में गणपति को प्राप्त कर लेता है।यहां तक इस व्रत को करने से विद्यार्थी को विद्या और रोगी को आरोग्यता की प्राप्ति भी होती है।

कृष्ण पक्ष की प्रायः सभी चतुर्थी तिथियाँ कष्ट निवारण करने वाली हैं। रविवार और मंगलवार से युक्त चतुर्थी तिथि का अमित महत्व है।इस प्रकार की एक चतुर्थी व्रत का पालन करने से वर्ष भर की चतुर्थी व्रत का फल प्राप्त होता है।पूजन के अनन्तर व्रती को श्रावण मे लड्डू और भाद्रपद में दधि का भोजन करना चाहिए। व्रती को आश्विन मे निराहार ,कार्तिक में दुग्धपान,मार्गशीर्ष में जलाहार,पौष में पंचगव्य,माघ मे सफेद तिल,फाल्गुन मे शर्करा,चैत्र मे गोदुग्ध,वैशाख में कमलगट्टा,ज्येष्ठ में गाय का घी और आषाढ़ में मधु का आहार करना चाहिए।

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