त्रिगुणमयी महाशक्ति की आराधना से खत्म होते सात जन्मों के पाप

आचार्य पं शरदचन्द मिश्र,

त्रिगुणमयी महाशक्ति की आराधना से सात जन्मों के पाप समाप्त होते हैं। शारदीय आश्विन शुक्ल एवं बासन्तीय चैत्र शुक्ल के नवरात्र में ऊर्जा की अधिष्ठात्री देवी, दुर्गा के रूप मे पूजी जाती है। इस आदि शक्ति महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, गौरी, उमा, दुर्गा, शाकम्भरी, भैरवी, कात्यायिनी, सिद्धिदात्री, कामरूपा आदि रूपों मे पूजित रही हैं। परम पिता परमात्मा की सत्ता लिंगभेद रहित है। शिव और शक्ति ईश्वर के दो रूप हैं, जिसे अर्द्धनारीश्वर भी कहा गया है। 

मारकण्डेय पुराण के सप्तम सर्ग में दुर्गा के जन्म, शौर्य, वरदान आदि का उल्लेख है, जो लोकप्रिय ग्रन्थ "दुर्गासप्तशती"के नाम से प्रसिद्ध है।महिषासुर, शुम्भ-निशुम्भ, दुर्ग, चण्ड-मुण्ड आदि दैत्यों का संहार करने वाली देवी की महिमा का इस ग्रन्थ में वर्णन है। यदि साधक नियमपूर्वक विधिविधान से नौ दिनों तक"दुर्गासप्तशती"का परायण करे, तो निश्चित रूप से उसे अपूर्व ऊर्जा की प्राप्ति होगी और उसके सुख-ऐश्वर्य मे वृद्धि होगी।

ॠग्वेद के एक मन्त्र में देवी का कथन है कि-"मैं रूद्र,वसु,आदित्य और विश्वदेव के रूप मे विचरण करती हूँ। मित्र, वरूण, इन्द्र, अग्नि और अश्विनी कुमार का रूप धारण करती हूँ। ब्रह्मसूत्र में सर्वसामर्थ्य युक्त पराशक्ति का उल्लेख हुआ है। श्रीमदभगवतगीता मे श्रीकृष्ण ने इस पराशक्ति का उल्लेख किया है। यथा-"मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।--"आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक-तीनो तापों की शान्ति के लिए देवी की आराधना की जाती है।-

"या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।"

-नवरात्र के नौ दिनों मे क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री के रूप में महाशक्ति दुर्गा की उपासना की जाती है।

यह भी सत्य है कि पिता की अपेक्षा बच्चा माॅ के आंचल मे अपने को ज्यादा सुरक्षित समझता है। इसलिए महाशक्ति की आराधना कर व्यक्ति स्वयं को अधिक ऊर्जावान एवं सुरक्षित समझता है। प्राचीन काल से यही कारण है कि क्षत्रिय वीर महाकाली की पूजाकर उनसे वरदान लेकर युद्धभूमि में जाते थे। महाराष्ट्र केशरी शिवाजी महाराज भगवती तुलजा के भक्त थे। गुरूगोविन्द सिंह और महाराणा प्रताप आदि वीर योद्धा देवी की आराधना करते थे। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात के कच्छ से लेकर कामाख्या तक देवी के अनेक मन्दिर और शक्तिपीठ स्थित हैं। श्वेताम्बर उपनिषद में "परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते"-ब्रह्म की अनेक शक्तियां मानी गई है। श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार-माॅ दुर्गा के अवताराओं का उद्देश्य है, श्रेष्ठ व्यक्तियों की रक्षा करना, वेदों को सुरक्षित रखना तथा दुष्टों का संहार करना।

इन रूपों मे आराधना करने से शरीर को संचालित करने वाले सात चक्र क्रमशः,मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक, आज्ञा चक्र एवं सहस्राधार चक्र स्वस्थ रहते है एवं उन्हें जैविक ऊर्जा मिलती है। इन चक्रो मे असन्तुलन होने पर ही शरीर को आधि-व्याधि सताती है। उदाहरणार्थ अनाहत चक्र की विकृति से हृदय रोग होता है। मूलाधार चक्र की निर्बलता यौन रोग उत्पन्न करती है तथा मणिपुर चक्र उदर रोग आदि, स्वधिष्ठान चक्र अस्थि रोग का केरण बनता है एवं विशुद्ध चक्र की विकृति गले का रोग एवं आज्ञा चक्र की विकृति नेत्र रोग तथा सहस्रार (मानस) चक्र का असन्तुलन मस्तिष्क रोग का कारण बनता है। नवरात्र मे इन चक्रो का ध्यान लगाने एवं माॅ दुर्गा के नौ रूपों का क्रमानुसार प्रतिदिन पूजा-अर्चना करने से शरीर स्वस्थ एवं ऊर्जावान बनता है। महागौरी अंर सिद्धिदात्री देवो व्यक्ति के आत्मतेज को बढ़ाती हैं। आगम ग्रन्थों मे नीलकण्ठी, क्षेमकरी, हरिसिद्धि, रूद्रांशी, दुर्गा, वनदुर्गा, अग्निदुर्गा, जयदुर्गा, विन्दुवासिनी दुर्गा तथा रूपकुमारी दुर्गा--ये नव रूप दुर्गा के माने गये हैं। योगीजन देवी की उपासना कर षट्चक्र भेदन तथा कुण्डलिनी को जाग्रत करते है। तान्त्रिक लोग भी नवरात्र में देवी की तान्त्रिक विधि से उपासना कर सिद्धियाॅ प्राप्त करते हैं। सिद्धिदात्री की उपासना करने से साधक को सभी सिद्धियाॅ प्राप्त होती है। देवी के द्विभुज, चतुर्भुज, अष्टभुज, दशभुज, शतभुज, सहस्रभुज आदि अनन्त रूप है। देवी त्रिगुणातीत है। सिंहवाहिनी देवी सामान्यतः आयुधों से युक्त हैं।

महाशक्ति की आराधना विश्व मे आदिकाल से चली आ रही है। विभिन्न देशों में इनकी पूजा विभिन्न विधियों से की जाती रही है। कालान्तर में इस्लाम, यहूदी और ईसाई आदि धर्मो के बाद इनकी आराधना बन्द हो गई, लेकिन आज भी कई देशो तथा दक्षिण अमेरिका के देशों ब्राजील,पीरू, मैक्सिको एवं पूर्वी एशिया के देशो में वहाॅ के मूल निवासी शक्ति की किसी न किसी रूप में आराधना करते हैं। भारत में पूर्व वैदिक काल से ही शक्ति की उपासना प्रचलित रही है। ऊर्जा चेतना शक्ति का ही पर्याय है। ईश्वर की ऊर्जा का स्वरूप शक्ति है।भारतीय जीवन ज्ञान,बल एवं ऐश्वर्य के सन्तुलित विकास से ही परिपूर्ण माना जाता है। इसमे महाशक्ति की कृपा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।शक्ति एवं प्रकृति, ब्रह्म की सहचरी हैं। प्रकृति हृदय है तो शक्ति अदृश्या मानव मन को शान्ति प्रदान एवं लौकिक उपलब्धियों में महाशक्ति की आराधना का प्रमुख स्थान है।

ॠग्वेद के अनुसार माॅ जगदम्बा ही आदि शक्ति है, उन्ही की ऊर्जा से अखिल विश्व का संचालन होता है। देवी भागवत में शक्ति और प्रकृति के पाॅच रूपों का वर्णन है, तथा--"गणेश, जननी, दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती।

सावित्री च सृष्टि विद्यौप्रकृति पंचधा स्मृता।।" -महाशक्ति दुर्गा त्रिगुणमयी है। सत, रज, तम का अपने में समावेश कर वह सृष्टि का संचालन करती हैं। महाशक्ति के गुण, स्वरूप तथा उपासना का विपुल साहित्य हमें वेद, पुराण, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, सूत्र, रामायण, महाभारत, तन्त्र साहित्य, आगम ग्रन्थों मे मिलता है। इसके अतिरिक्त संस्कृत और हिन्दी के लेखकों ने महाशक्ति की महिमा में भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है। देवीभागवत, कालिका पुराण, ब्रह्मवैवर्त तथा देवीपुराण ,प्रधान रूप से देवी को परम तत्त्व स्वीकार कर लिखे गयें हैं। वैष्णव पुराणों मे वैष्णवी और शैव पुराणों मे शिवा का अभेद रूप से प्रतिपादन है।भारत के गावों में भी अनपढ़ जनजातियों मे शक्ति की उपासना की अनेक कथाएँ तथा पूजा-अर्चना की विधियां प्रचलित है।देवी के कई चबूतरे गावों मे निर्मित है।ग्रामीण नारियों के कोमल कण्ठ से माॅ दुर्गा के कई लोकगीत गाये जाते है।

अध्यक्ष- रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी गोरखपुर।

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