ठुमक चलत रामचंद्र, बजात पैजनियां...

भए प्रगट कृपाला, दीन दयाला, कौशल्या हितकारी, हर्षित महतारी, अद्भुत रूप बिचारी, लोचन अबीरामा, तनु घनश्याम, निज आयुध भुज चारी...

व्रत-उपासना, पर्व-त्योहार आदि का कोई न कोई सांस्कृतिक आधार अवश्य है। विशेषतायें व्रत में तो सांस्कृतिक उन्नयन का एक-न-एक शुभ संदेश निश्चय ही निहित रहता है। यों तो भारतीय ज्योतिष के अनुसार चन्द्र मास के शुक्ल और कृष्ण पक्ष की जो पन्द्रह-पन्द्रह तिथियाँ हैं, उनमे प्रत्येक तिथि व्रत की तिथि है, अर्थात प्रत्येक तिथि को व्रत करने का नियम है। तथापि रामनवमी व्रत का विधान अन्य व्रतों से कुछ विशिष्ट है। इसकि सांस्कृतिक मूल्य तो है ही, वैज्ञानिक महत्व भी है।

गोरखपुर। रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी के अध्यक्ष- आचार्य पंडित शरदचन्द मिश्र बताते है कि कोई भी व्रत हो उसके लिए श्रद्धा-भक्ति और नियम निष्ठा अवश्य होनी चाहिए। बिना इसके मन की अशुद्धता और अपवित्रता कदापि दूर नही हो सकती है।जब भौतिकता प्रबल-प्रचण्ड होकर संस्कृति को निगलने को उतारू हो जाय,तब श्रद्धा-भक्ति व्रत उपासना की आवश्यकता होती है। रामनवमी के दिन राम ने जन्म लिया था, अत: एव उस दिन उपवास और जागरण के द्वारा उन महापुरूष के कल्याणकारी चरित्र का अनुचिन्तन और अनुशीलन होना चाहिए। व्रतार्क के अनुसार रामनवमी का दिन सांस्कृतिक पावनता के एकछत्र रामराज्य का दिन है। व्रत के एक दिन पूर्व अष्टमी को इन्द्रिय -संयम का पालन करते हुए उषा बेला में उठना चाहिए।

उन्होंने बताया कि अगस्त्य संहिता मे लिखा है कि चैत शुक्ल पक्ष की मध्याह्न से शुरू होने वाली दशमी युक्त नवमी व्रत के लिए शुभ है। यदि उस दिन पुनर्वसु नक्षत्र का योग हो जाय, तो वह अतिशय पुण्यदायिनी होती है। नवमी को व्रत उपवास करके दशमी के दिन पारण करने की शास्त्राज्ञा है। अगस्त्य संहिता के अनुसार चैत्र शुक्ल नवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र, कर्क लग्न में, जब सूर्य अन्यान्य पाॅच ग्रहों की शुभ दृष्टि के साथ मेष राशि पर विराजमान थे, तभी साक्षात श्रीराम का जन्म कौशल्या के गर्भ से हुआ था। इसलिए इस दिन जो कोई व्यक्ति दिनभर उपवास और रातभर जागरण का व्रत रखकर भगवान श्रीराम की पूजा करता है तथा अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार दान करता है,वह अनेक जन्मों के पापों को भष्म करने में समर्थ होता है।

आचार्य मिश्र ने बताया कि शान्तचित्त से नित्यकृत्य को समाप्त के पश्चात नदी या झरने अथवा कहीं भी स्वच्छ जल से स्नान करे।पवित्र नदी का स्नान अति उत्तम माना जाता है। इस दिन किसी विद्वान वैष्णव ब्राह्मण को आचार्य के रूप मे वरण करना चाहिए। उस ब्राह्मण की पूजा करनी चाहिए। व्रती हविष्यान्न का भक्षण करे और आचार्य जी से रामकथा श्रवण करे।रात्रिजागरण करे और राममन्त्र का जप करे।नवमी के दिन घर पर या उत्तर दिशा मे कुछ दूर एक सुन्दर और सुसज्जित मण्डप का निर्णाण करवायें  और उसी मण्डप मे रामपूजा का उतसव मनायें।दिन मे आठो प्रहर राम की कथा और उनका कीर्तन तथा स्तोत्र प्रार्थना आदि के साथ गन्ध,पुष्प,अक्षत,धूप,दीप,कपूर,अगर आदि वस्तुओ से भगवान राम की प्रतिष्ठा और पूजन करे।साथ-साथ कौशल्या तथा आर्यश्रेष्ठ दशरथ,हनुमान आदि की पूजा भी की जानी चाहिए। हवन और वेदपाठ भी कराना चाहिए। इस पूजन और सांस्कृतिक उत्सव से वातावरण की शुद्धि हो जाती है,जिससे महामारी आदि जनपद ध्वंसी या देशव्यापी रोगों का प्रकोप शान्त हो जाता है।

आचार्य मिश्र ने कहा कि जब तक हम तन, मन और वचन से शुद्ध नही होते है, थब तक हमारा सांस्कृतिक उत्थान सम्भव नही है और न ही हमे कोई आध्यात्मिक लाभ ही प्राप्त हो सकता है।इस लिए रामनवमी के दिन यह संकल्प किया जाता है--

"सकल पापक्षयकामोऽहं श्रीरामप्रीतये श्रीरामनवमीव्रतं करिष्ये।"

--अर्थात सब पापों की क्षय की कामना से मैं श्रीराम की प्रसन्नता के लिए श्रीरामनवमी व्रत करूंगा।श्रीराम तो भगवान है, अत: एव उनकी प्रसन्नता के लिए हृदय की पूर्ण पवित्रता अपेक्षित है। रामनवमी कै दिन स्वयं भगवान ने नरलीला करने के लिए राम के रूप मे अवतार लिया था--जबकि रावण और उसके दुर्दान्त सहायक राक्षसों का अत्याचार बढ़ा हुआ था और सज्जनों का अस्तित्व संकट में था। वे हर पल असुरक्षा के बोध से ग्रसित थे। आचार्य मिश्र बताते हैं कि रामावतार का कारण बताते हुए व्रतराज मे कहा गया है-- दशानन वधार्थाय धर्मस्थापनाय च। दानवानां विनाशाय दैत्यानां निधनाय च।। परित्राणाय साधूनां जातो रामः स्वयं हरिः।"

-अर्थात रावण के वध, दानवों के विनाश, दैत्यों को मारने तथा धर्म की प्रतिष्ठा एवं सज्जनो के परित्राण के लिए स्वयं श्रीहरि राम के रूप में अवतीर्ण हुए। श्रीरामनवमी के दिन हमे जन-जन में व्याप्त उनके ज्ञानगम्य रूप दर्शन के लिए अपने हृदय को संकीर्णता से मुक्तकर ज्ञान की सीमा को विस्तृत करना होगा। तभी हमारा यह राम प्रार्थना--"विश्वमूर्तये नमः"-"ज्ञानगम्याय नमः"--"सर्वात्मने नमः"-सफल होगा। श्रीराम विश्वमूर्ति है, ज्ञानगम्य हैं, सर्वात्मा है। उन्होंने बहुतों को लेकर चलने मे ही अपने जीवन की सार्थकता मानी है। उनका जीवन मन्त्र था-"भूमा वै सुखं नाल्पे सुखमस्ति"-अर्थात बहुतो के साथ चलने मे ही सुख है, अल्प मे नही।

आचार्य मिश्र ने बताया कि श्रीमद् वाल्मिकी रामायण के अनुसार श्रीराम का जन्म महोत्सव अयोध्या मे बहुत ही उत्साह से मनाया गया। जन्म के समय गन्धर्वों ने मधुर गीत गाये। अप्सराओं ने नृत्य किया। देवताओ की दुन्दुभियाॅ बजने लगी तथा आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। अयोध्यापुरी मे बड़ा उत्सव हुआ। मनुष्यों की भारी भीड़ एकत्र हुई। गलियाँ और सड़कें खचाखच भरी हूई थीं। बहूत से नट-नर्तक वहाँ अपनी कलाएँ दिखा रहे थे। जन्मोत्सव सभी उत्सवों मे महत्वपूर्ण है। विशेष आनन्दप्रद है। भगवान का जन्म तो श्रीमदभगवदगीता के अनुसार-"जन्म कर्म में दिव्यम्" दिव्य है। इसलिए श्रीमदभागवत मे भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य को परब्रह्म परात्पर परमात्मा का प्राकट्य बताकर नन्दोत्सव के रूप मे वर्णित किया गया है और इन दोनो महोत्सवों को आज भी मनाने की परम्परा स्थापित है। भारतीय संस्कृति में जन्म को अत्सव के रूप मे लिखा गया है। समग्र सृष्टि प्रकट होने के साथ ही उत्सव का उत्साह होता है। महाकवि कालिदास ने -"अभिज्ञानशाकुन्तलम्"-नाटक मे वर्णन किया है कि शकुन्तला के द्वारा लगाये गये पौधों मे प्रथम बार पुष्प लगने पर उत्सव मनाया गया--आद्ये वःकुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः"-अर्थात यह है कि हमारी संस्कृति में जन्म चाहे वह पशु-पक्षी अथवा वनस्पति का हो, विशेष आनन्द की अनुभूति करा देता है। भगवान का जन्म होना तो परम आनन्ददायक होगा ही। भारतवर्ष मे अवतारों की जयन्तियाॅ उत्सव के रूप में मनायी जाती हैं।

आचार्य मिश्र के अनुसार अयोध्या, जनकपुर, जयपुर और अन्य छोटे-छोटे नगरों-ग्रामो मे राम जन्मोत्सव के छठे दिन छठी उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद् देवीभागवत के नवम स्कन्ध में नारन-नारायण संवाद के रूप में षष्ठी देवी का स्तोत्र मिलता है-"

-रैवसापीठ के संस्थापक श्रीअग्रदेवाचार्य जी की वाणी में छठी प्रकरण वंशावली के रूप मे मिलता है। आगे चलकार श्रीझांझूदास जयपुर के वंशज सन्त कवि श्रीसिया सखी जी ने इस महोत्सव को व्यापक रूप प्रदान किया। श्रीसियासखी जी का स्थिति काल विक्रमी सम्वत् 1889 के पूर्व है। राजस्थान के हरसोली ग्राम में इनका श्रीराम जी से सम्बन्धित छठी प्रकरण संग्रह के रूप में प्राप्त है। महात्मा अग्रदास जी और गोस्वामी तुलसीदास की वाणियों के अतिरिक्त सियासखी जी के पदों का समन्वय श्रीराम जी के छठी-उत्सव को सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करता है। आज भी राजस्थान, उततर प्रदेश और बिहार के अनेक राममन्दिरों में श्रीराम जी के छठी-उत्सव के सहस्रों पद मिलते हैं। सियासखी जी ने इन्हें उत्सव क्रम से स्वरचित पदों के साथ अपने छठी उत्सव प्रकरण में संग्रहीत किया है।


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