लोकमान्यता का परम पुनीत पर्व है एकादशी

 

आज 7 मई 2021, शुक्रवार को वरूथिनी एकादशी है। इस दिन सूर्योदय 5 बजकर 27 मिनट पर और एकादशी तिथि का मान सायंकाल 5 बजकर 21 मिनट तक है। इसमे पूर्व वेध न होने से और सूयोदय के समय एकादशी होने से यह व्रत स्मार्त और वैष्णव दोनो के लिए ग्राह्य रहेगा। सनत्कुमार के अनुसार जिस प्रकार शिव और विष्णु दोनो आराध्य हैं, उसी प्रकार कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशी उपोष्य है।

एकादशी सर्वाधिक लोकप्रिय व्रत है। यों तो स्त्री और पुरूष दोनो ही इस व्रत को करते हैं, किन्तु पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों में इसका ज्यादा प्रचलन है। आयुर्विज्ञान की दृष्टि से पन्द्रह दिन पड़ने वाले इस व्रत का स्वास्थ्य के हित में भी इसका बड़ा महत्व है। एकादशी व्रत करने वाले बहुत कम बीमार होते है और उन्हे दीर्घायु भी मिलती है।

व्रत के विषय मे वेदों की ॠचाओं में अनेक अनुशंसनीय वाक्य मिलते हैं। यजुर्वेद मे कहा गया है- 

"अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।इहमहनृतात्सत्यमुपैमि।।"

व्रत, पर्व और उत्सव हमारी लौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए सशक्त साधन हैं। इससे आनन्द-उल्लास के साथ जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती है। सम्पूर्ण सृष्टि का उद्भव आनन्द से ही है और यह सृष्टि आनन्द में ही स्थित है। भारतीय पर्वो के मूल में इसी आनन्द और उल्लास का पूर्ण समावेश है। दुःख, भय, मोह, शोक तथा अज्ञान की आत्यन्तिक निवृत्ति और अखण्ड आनन्द की प्राप्ति ही व्रत-उपवास का लक्ष्य है। पर्व मनुष्य को अन्तर्मुखी होने की प्रेरणा देते है।स्नान, पूजन, जप, दान, हवन और ध्यानादि कर्म एक प्रकार का व्रत है। इनमें से प्रत्येक कर्म मनुष्य की बाह्य वृत्ति को अन्तर्मुखी करने में समर्थ हैं।

व्रतो की रक्षा करने वाले हे अग्निदेव (परमात्मा)। मै व्रताचरण करूॅगा, आप मुझे व्रतों के आचरण की शक्ति प्रदान किजिए। मेरा व्रताचरण निर्विघ्न सम्पन्न हो जाय। मै असत्य से दूर रहकर सत्य का आचरण करूॅ। ऐसा आशिर्वाद मुझे प्रदान किजिए। एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि व्रत धारण करने से मनुष्य दीक्षित होता है। दीक्षा से उसे दाक्षिण्य (दक्षता) प्राप्त होती है। दक्षता से श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है और श्रद्धा से ही सत्य स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है।

कालादर्श मे कहा गया है-"विधवाया वनस्थस्य यतेश्चैकादशीद्वये।उपवासो गृहस्थस्य शुक्लायामेव पुत्रिणः।।

विशेषता यह है कि पुत्रवान गृहस्थ शुक्ल एकादशी और वानप्रस्थ,सन्यासी तथा विधवा दोनो का व़त करें, तो, उत्तम होता है।एक स्थान पर विष्णुपुराण के माध्यम से नारद जी का वाक्य है--"आदित्येऽहनि संक्रान्तौ ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः। उपवासो न कर्त्तव्यो गृहिणा पुत्रिणा तथा।।कृष्णैकादशीति विशेषतः।"-

-इसमे कहा गया है कि पुत्रवान गृहस्थी के लिए रविवार, संक्रान्ति, चन्द्रादित्य के ग्रहण और कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत करने की आज्ञा नही है। अतः उनको चाहिए कि वह व्रत की अपेक्षा स्नान-दान अवश्य करें। इससे दाता और भोक्ता दोनो का कल्याण होता है।

इसमें शुद्धा और विद्धा-ये दो भेद है। दशमी आदि से विद्ध हो तो,वह विद्धा और अविद्ध हो तो शुद्धा होती है। इस व्रत को शैव, वैष्णव और सौर-सब करते हैं। वेध के विषय में बहुत से विभिन्न मत हैं। उनको शैव, वैष्णव और सौर पृथक-पृथक ग्रहण करते हैं। सिद्धान्त रूप से उदयव्यापिनी ली जाती है, परन्तु उसकी उपलब्धि सदैव नही होती है।इस कारण कोई प्रथम दिन की 45 घड़ी दशमी को त्याज्य मानते हैं।कोई 55 घड़ी का वेध निषेध मानते हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार क्षय एकादशी निषिद्ध होती है। जिस दिन दशमी अनुमानतः1-15, एकादशी 57-22 और द्वादशी 1-23 हो उस दिन एकादशी का क्षय हो जाता है। कुछ विद्वानो के अनुसार दशमी 45 घड़ी से जितना अधिक हो, उतना ही ज्यादा बुरा वेध होता है।bजैसे 45 का कपार, 52 का छाया, 53 का ग्रासाख्य, 54 का सम्पूर्ण, 55 का सुप्रसिद्ध, 56 का महावेध, 57 का प्रलयाख्य, 58 का महाप्रलयाख्य, 59 का घोराख्य और 60 का राक्षसाख्य होता है। ये सब साम्प्रदायिक वेध हैं अंर वैष्णवों में 45 तथा 55 का वेध त्याज्य होता है।

एकादशी व्रत करने वाले को चाहिए कि वह प्रथम बार व्रत का आरम्भ मलमास या गुरू के अस्त अथवा शुक्र के अस्त में न करे। गुरू-शुक्र के उदय में चैत्र, वैशाख, माघ या मार्गशीर्ष की एकादशी से आरम्भ कर व्रत करना चाहिए। व्रत के (दशमी ,एकादशी और द्वादशी-इन) तीन दिनों में कांस्यपात्र, मसूर, चना, शाक, शहद, तेल इत्यादि का सेवन न करे। व्रत के पहले दिन (दशमी को) और दूसरे दिन (द्वादशी को) हविष्यान्न (जौ,गेंहूॅ,मूंग,सेंधा नमक,काली मिर्च,शर्करा और गोघृत आदि)bका भोजन केवल एक बार करे। दशमी की रात्रि में एकादशी व्रत का स्मरण करे और एकादशी को प्राथःकाल नित्यकर्म से निवृत होकर --"मम कायिक वाचिक मानसिक सांसर्गिक पातक-उपपातक दुरितक्षय पूर्वक श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्तये श्री परमेश्वर प्रीतिकामनया एकादशीव्रतमहं करिष्ये"-- यह संकल्प करके जितेन्द्रिय होकर श्रद्धा भक्ति और विधिसहित भगवान का पूजन करे। उत्तम प्रकार से गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि अर्पण कर निराजन (आरती) करे। तत्पश्चात जप, हवन, स्तोत्र पाठ और मनोहर गायन-वादन और नृत्य करके प्रदक्षिणा और दण्डवत करें। इस प्रकार भगवान की सेवा में दिन व्यतीत कर रात्रि मे कथा, वार्ता, स्तोत्र पाठ अथवा भजन आदि के साथ जागरण करें। फिर द्वादशी को पुनः पूजन करने के पश्चात् पारण करें।

एकादशी व्रत में उन्मीलिनी, वंजुली, त्रिस्पृशा, पक्षवर्धिनी, जया, विजया, जयन्ती और पापनाशिनी-ये आठ भेद और हैं। इनमें त्रिस्पृशा (तीनो को स्पर्श करने वाली) एकादशी (तथा सूर्योदय में एकादशी, तत्पश्चात द्वादशी और दूसरे सूर्योदय में त्रयोदशी हो वह) महाफल देने वाली मानी गयी है। एकादशी के नित्य और काम्य दो भेद है। निष्काम की जाय तो वह नित्य और धन-पुत्रादि की प्राप्ति अथवा रोग-दोषादि की निवृत्ति के लिए की जाय तो वह काम्य कहलाती है। नित्य में मलमास और शुक्रास्त इत्यादि की मनाही नही है, किन्तु काम्य में शुभ समय होने की आवश्यकता है।

व्रत कथा

बरूथिनी एकादशी व्रत 7 मई 2021, शनिवार को है। इस व्रत की कथा का उल्लेख पद्मपुराण में मिलता है। वह इस प्रकार है--प्राचीन काल मे मान्धाता नामक एक परम तेजस्वी राजा नर्मदा के तट पर रहता था। वह दानी और तपस्वी था। एक दिन वह तपस्या करने मे लीन था, तो उस दौरान एक जंगली भालू उसका पैर चबाने लगा, लेकिन मान्धाता को न तो कोई घबराहट हुई और न ही उस पर क्रोध आया। वह मन ही मन भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगा उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और अपने सुदर्शन चक्र से उस भालू का सिर काट डाला। चूंकि भालू ने राजा का एक पैर चबाकर नष्ट कर दिया था, इसलिए अपनी अपंग अवस्था को देखकर वह बहुत दुःखी हुए। उनका दुःख समझकर भगवान विष्णु ने कहा-"राजन! तुम मथुरा जाकर मेरे वराह अवतार वाले रूप की उपासना बरूथिनी एकादशी के दिन करो।इस तरह तुम्हारा पैर ठीक हो जायेगा। मथुरा पहुॅच कर राजा मान्धाता ने भगवान विष्णु के बताए अनुसार बरूथिनी एकादशी के दिन वराह का पूजन और उपवास किया, फलतः पैर वापस हो गया और सम्पूर्ण अंगो वाला हो गया। यह एकादशी पापमोचनी है। यह समस्त पापों से मुक्ति प्रदान करती है।एक अन्य कथा के अनुसार च्यवन ॠषि के उत्कृष्ट तपस्वी पुत्र मेधावी ने मंजुघोषा अप्सरा के संसर्ग से अपना तेज खो दिया था,किन्तु पिता ने चैत्र कृष्ण एकादशी का व्रत करवाया।इस व्रत के प्रभाव से मेधावी के सब पाप नष्ट हो गये और यथापूर्व अपने धर्म-कर्म ,सदनुष्ठान और तपश्चर्या में संलग्न हो गया।

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