निर्जला एकादशी व्रत से परम पुरूषार्थ की प्राप्ति, भीमाएकदशी 21 को

 व्रतोपवास और निर्जला एकादशी के मुहूर्त और कथा

आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र के अनुसार किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, दिन भर के लिए अन्न, जल या अन्न जल दोनों का त्याग व्रत कहलाता है। इसके अतिरिक्त किसी कार्य को पूरा करने का संकल्प लेना भी व्रत कहलाता है। संकल्प पूर्वक किये कर्म को व्रत कहते हैं।मनुष्य को पुण्य के आचरण से सुख और पाप के आचरण से दुःख होता है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने अनुकूल सुख की प्राप्ति और अपने प्रतिकूल दुःख की निवृति चाहता है। मानव की इस स्थिति को जानकर ॠषियों ने धार्मिक साहित्य को आत्मसात कर, मानव के कल्याण के लिए, सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृति के लिए अनेक उपाय बताये हैं। इन उपायों में व्रत और उपवास सुगम उपाय है।व्रतों के विधान के विषय मे व्रत के अनेक अंगो का वर्णन देखने को मिलता है।इन अंगों का विवेचन करने से ज्ञात होता है कि उपवास भी व्रत का प्रमुख अंग है। इसलिए कहा गया है कि व्रत और उपवास में अभिन्न सम्बन्ध है।अनेक व्रतों के आचरण में उपवास करने का विधान देखा जाता है।व्रत धर्म का साधन माना जाता है। संसार के सभी धर्मों ने किसी न किसी रूप में व्रत और उपवास को अपनाया है।व्रत के आचरण से पापों का नाश, पुण्य का उदय, शरीर और मन की शुद्धि, अभिलषित मनोरथ की प्राप्ति, शान्ति और परम पुरूषार्थ की प्राप्ति होती है। अनेक व्रतों मे सर्वप्रथम वेद के द्वारा प्रतिपादित अग्नि की उपासना रूपी व्रत देखने में आता है। वैदिक काल की अपेक्षा पौराणिक काल मे ज्यादा व्रत देखने में आते हैं।वैदिक युग मे व्रत बड़े कठोर नियमों से आबद्ध रहे हैं। पौराणिक काल में नियमों की कडोरता कम हो गई यथा नियमों में विकल्प भी दिये गये हैं।जैसे एकादशी के दिन उपवास करने का विधान है ,वहीं विकल्प में लघु आहार या सम्भवन हो तो एक बार ओदन (चावल) रहित अन्नाहार करने का विधान शास्त्र सम्मत है।

वर्ष मे अधिक मास को लेकर 26 एकादशी व्रत करने की अनुज्ञा है। परन्तु लोक मे दो एकादशी व्रत का बड़ा प्रचलन है।उत्तरायण में भीमसेनी (निर्जला) एकादशी।तथा दक्षिणायन मे प्रबोधिनी एकादशी व्रत बहुसंख्यकों द्वारा किये जाते है।ऐसी लोक अंर शास्त्रीय मान्यता है कि यदि वर्ष के सभी एकादशी व्रत को न कर पाते हों तो केवल ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष मे सम्पन्न होने वाला भीमसेनी एकादशी को ही सम्पन्न कर ले-तो वर्ष के सभी एकादशी व्रतों का पुण्य प्राप्त हो जाता है।

इस वर्ष 21 जून दिन सोमवार को निर्जला एकादशी व्रत स्मार्तो (गृहस्थों) और वैष्णवों -दोनो के लिए एक दिन ग्राह्य रहेगा।वाराणसी से प्रकाशित पंचांग के अनुसार सूर्योदय 5 बजकर 13 मिनट और एकादशी तिथि का मान प्रातः 9 बजकर 43 मिनट पश्चात द्वादशी है।स्वाती नक्षत्र दिन में 1 बजकर 55 मिनट,शिव योग और छत्र नामक महाऔदायिक योग भी है। चन्द्रमा की स्थिति वैभव और सम्पन्नता के दाता तुला राशि के स्वामी शुक्र के स्थान पर होने से इस व्रत के लिए सुश्रेष्ठ दिन है।

नित्य, नैमित्तिक और काम्य-इन भेदों से व्रत तीन प्रकार के होते हैं।जिस व्रत का आचरण सर्वदा के लिए के लिए आवश्यक है और जिसके न करने से मानव दोषी हो जाता है,वह नित्य व्रत है। सत्य सम्भाषण करना, पवित्र रहना, इन्द्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील वाक्य का प्रयोग न करना, परनिन्दा न करना-यह नित्य व्रत है। किसी प्रकार का पातक हो जाने या अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चान्द्रायण प्रभृति जो व्रत किये जाते है-वे नैमित्तिक व्रत कहलाते हैं।इसके अतिरिक्त जो व्रत किसी कामना विशेष से प्रोत्साहित होकर सम्पन्न किये जाते है-वे काम्य व्रत कहलाते हैं। पुरूषों और स्त्रियों के लिए पृथक व्रतों का भी अनुष्ठान कहा गया है।कतिपय व्रत उभय के लिए सामान्य तथा कतिपय व्रतों को दोनो मिलकर कर सकतें हैं।जैसे श्रावण मास मे किया जाने वाला उपाकर्म केवल पुरूषो के लिए विहित है तथा भाद्रपद मास मे सम्पन्न होने वाला हरितालिका व्रत केवल स्त्रियों के लिए कहा गया है।एकादशी व्रत दोनो के लिए सामान्य रूप से ग्राह्य है। शुभ मुहुर्त में किया जाने वाला कन्यादान जैसा व्रत दम्पति द्वारा किये जा सकते हैं। किसी व्रत के अनुष्ठान के लिए देश और स्थान की शुद्धि अपेक्षित है।एकादशी व्रत के जानकारों का कथन है कि इस दिन शरीर में जल की मात्रा कुछ कम होनी चाहिए।व्रत के दिन शरीर मे जितना जल कम न्यून होता है,व्रत करने में उतनी आसानी होती है।चावल मे जल की मात्रा अधिक होती है।अतः एकादशी के दिन चावल न खाने की बात कही गयी है।

पूजन विधि-विधान

इस दिन ब्रह्ममुहुर्त में दैनिक कर्मों से निवृत होकर स्नान कर पवित्र हो। पुनः स्वच्छ वस्त्र धारणकर भगवान विष्णु की पूजा आराधना व आरती भक्ति भाव से विधिपूर्वक सम्पन्न करें। महिलाएं पूर्ण श्रंगार कर मेहदी आदि रचाकर पूर्ण श्रद्धा, भक्तिभाव से पूजन करने के पश्चात कलश के जल से पीपल के वृक्ष को अर्घ्य दें।पुनः व्रती प्रातःकाल सूर्योदय से आरम्भ कर दूसरे दिन सूर्योदय तक जल और अन्न का सेवन न करे।इस एकादशी के दिन अन्न और जल ग्रहण करने से व्रत खण्डित हो जाता है।दूसरे दिन प्रातःकाल निर्मल जल से स्नान कर भगवान विष्णु की प्रतिमा या पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक जलाकर प्रार्थना करें। इसके बाद यथा शक्ति ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा में शीतल जल से भरा घड़ा, अन्न, वस्त्र, छाता, पान, शैय्या, आसन, पंखा, सुवर्ण और गौ -का दान करें। ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति इस दिन जल से भरा घड़ा के दान करता है, वह सुवर्ण दान के तुल्य फल प्राप्त करता है।

व्रत का माहात्म्

इस व्रत को करने से समस्त तीर्थों का पुण्य, सभी एकादशियों का फल एवं समस्त दानों का फल प्राप्त होता है। इसका उपवास धन-धान्य देने वाला, पुत्र प्रदायक, आरोग्यता का सम्वर्धन करने वाला और दीर्घायु प्रदान करने वाला है। श्रद्धा और भक्ति से किया गया यह व्रत सब पापों को क्षण भर में नष्ट कर देता है। जो मनुष्य इस दिन स्नान, दान, जप अंर हवन करता है, वह सब प्रकार से अक्षय हो जाता है। जो फल सूर्यग्रहण के समय कुरूक्षेत्र में दान करने से प्राप्त होता है, वही फल इस व्रत के करने और इसकी कथा पढ़ने से भी मिलता है व्रती की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है और वह इस जगत का सुख भोगते हुए परमधाम जाकर मोक्ष प्राप्त करता है।

व्रत कथा

एक दिन महर्षि वेदव्यास से भीम ने पूछा-"पितामह!मेरे चारो भाई,माता कुन्ती और द्रौपदी सभी एकादशी के दिन भोजन करके उपवास रखतें हैं।निर्जल एकादशी के दिन तो जल तक नही ग्रहण करते हैं।वे चाहते हैं कि मैं भी उनकी तरह विधि विधान से उपवास रखकर अन्न जल न ग्रहण करूॅ,परन्तु मैं ऐसा नही कर पाता हूॅ।आप बतायें कि मुझे क्या करना चाहिए? तब महर्षि वेदव्यास बोले-"हे भीम!तुम ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करो।इस व्रत से तुम्हे सभी एकादशियों के करने का पुण्य लाभ होगा।महर्षि वेदव्यास के सामने भीम ने प्रतिज्ञा कर इस एकमात्र एकादशी का व्रत पूरा किया,तभी से इसे भीमसेनी एकादशी व्रत के नाम से जाना जाता है।

आचार्य पं शरदचन्द मिश्र, अध्यक्ष-रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसाइटी, गोरखपुर

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