नर से नारायण बनने की प्रक्रिया है कुण्डलिनी जागरण : डा. दीनानाथ राय



गोरखपुर। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के उपलक्ष्य में महायोगी गुरु गोरक्षनाथ योग संस्थान एवं श्री गोरखनाथ मंदिर गोरखपुर की तरफ से आयोजित ऑनलाइन साप्ताहिक योग शिविर एवं शैक्षिक कार्यशाला के पांचवें दिन व्याख्यान के क्रम में 'कुंडलिनी जागरण की वैज्ञानिक विवेचना' विषय पर मुख्य वक्ता के रूप में लखनऊ के केजीएमयू चिकित्सालय के प्रसिद्ध चिकित्सक व कुंडलिनी जागरण के विशेषज्ञ डॉ॰ दीनानाथ राय ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कुण्डलिनी मूलाधार में शक्तिरूप में सुप्तावस्था में विद्यमान रहती है, जिसको साधना के द्वारा जागृत किया जाता है। जगी हुई कुंडलिनी मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र इन 6 चक्रों का भेदन करते हुए सिर के मध्य भाग में स्थित सहस्रार में पहुंचती है, जहां पर शिव विराजमान होते हैं। यह प्रक्रिया शिव और शक्ति के मिलन के रूप में होती है। जिसके अनन्तर साधक नर से नारायण की अवस्था को प्राप्त करता है।

उन्होंने कहा कि शरीर में गले से ऊपर ज्ञान खंड और गले से नीचे कर्म खंड होता है। गोरखनाथ जी ने हठयोग की साधना में विभिन्न आसनों के माध्यम से कर्म खंड की शुद्धि के बाद प्राणायाम, धारणा, ध्यान इत्यादि के माध्यम से ज्ञान खंड में अपने मन को स्थिर करते हुए समाधि की बात कही है।


उन्होंने कहा कि कुण्डलिनी जागरण वैराग्य की उच्च अवस्था है, इसके लिए साधक को पहले अपने शरीर और मन को समायोजित करना होता है। कुण्डलिनी जागरण होने पर योगाग्नि जागृत होती है। जोसाधक के सभी विकारों और तामसी प्रवृत्तियों को भस्म कर देती है।

 कुण्डलिनी सत्व, रज, और तम रूपी 3 वलयों के रूप में स्थित होकर मूलाधार में सोई रहती है। उसको जागृत करने पर वह ऊर्ध्वगामी होकर अपना मार्ग खोजती है। उसको 3 नाडी मार्ग मिलते हैं इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। साधक जब कुण्डलिनी को इड़ा और पिंगला में न ले जाकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराता है तो वह षट्चक्र भेदन करते हुए सहस्रार तक पहुंचती है। उसके बाद योगी तेजोमय बन जाता है और परम पद को प्राप्त करता है। 

डॉ॰ राय ने कहा कि इड़ा व पिंगला इन दोनों नाड़ियों को समान रूप से साधक चलाते हैं तो उनके मस्तिष्क में हाइपोथैलेमस नामक ग्रन्थि सक्रिय होती है और उसके द्वारा शरीर के अंदर की अन्तःस्रावी ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं।

कुण्डलिनी जागरण की विधि का विवेचन करते हुए उन्होंने बताया कि गोरखनाथ जी ने हठयोग में षट्कर्म की क्रियाएं बताई हैं, जो कि शरीर और मन की शुद्धि करती हैं। इन क्रियाओं के बाद साधक कुण्डलिनी को जागृत करता है जिससे उसका मार्ग अवरोध रहित होता है।

उन्होंने साधकों को सचेत करते हुए कहा कि बिना योगासन किए यह साधना करना हानिकारक हो सकता है और साथ ही शरीर तथा मन को स्वस्थ रखने के लिए भी साधक को ध्यान देना चाहिए। शरीर के लिए आसन और मन के लिए प्राणायाम आवश्यक है। भस्त्रिका प्राणायाम से मणिपुर चक्र में मन स्थिर होता है और साधना में योगी सफल होता है। इस साधना में बन्ध भी महत्वपूर्ण होते हैं। जिसमें मुख्य रूप से उड्यान बन्ध, मूलाधार बन्ध व जालंधर बन्ध होते हैं। 

उन्होंने बताया कि इन सब के साथ एक सद्गुरु का सत्संग भी परम आवश्यक है। जो समय-समय पर साधना मार्ग में साधक को दिशानिर्देश देने का कार्य करता है।

 योग शिविर में प्रतिदिन की भांति योगाचार्य श्री शुभम द्विवेदी ने प्रातः 6:00 से 7:00 तक ऑनलाइन माध्यम से योग व प्राणायाम का अभ्यास कराया तथा सायं 6:00 से 7:00 तक योगासन व ध्यान की क्रिया का अभ्यास कराया।

 कार्यक्रम का संचालन व आभार ज्ञापन श्री गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ के दर्शन विभाग के आचार्य डॉ॰ प्रांगेश कुमार मिश्र ने किया।

कार्यक्रम का सजीव प्रसारण जूम एप के साथ हीं गोरखनाथ मंदिर के फेसबुक पेज, यूट्यूब और ट्विटर अकाउंट पर हुआ, जिसमें महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के विभिन्न प्राचार्य व आचार्यगण के सहित अनेक श्रोतागण व  प्रशिक्षु उपस्थित रहे।

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