जगन्नाथधाम जैसा उत्सव कहीं और नही, जाने, यात्रा की वैभव

 
राजा को यह सुनकर बहुत चिंता हो गई। नारद जी ने राजा को धीरज बधायां। राजा ने नारद जी की आज्ञा से वहां पर कई यज्ञों का सम्पादन किया। रात्रि में राजा को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ के दर्शन हुए। स्वप्न में भगवान के दर्शन प्राप्त करने पर राजा को बहुत प्रसन्नता हुई। राजा नारद जी की सलाह से समुद्र स्नान के लिए चल दिए। समुद्र स्नान करते समय समुद्र में ही भगवान प्रकट हो गए। भगवान के साथ एक वृक्ष भी प्रकट हुआ। भगवान की आज्ञा से उस वृक्ष को राजा ने यज्ञशाला में रखवाया।

आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र,

भारत के चार प्रमुख धामों में श्री जगन्नाथ पुरी एक परमधाम है। चारों धामों का अपना पृथक पृथक महत्व है। आदि गुरु शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार प्रमुख तीर्थ स्थलों को एक में जोड़कर पूरे भारत को एक सूत्र में आबद्ध कर दिया है और भारत के चारों प्रमुख तीर्थों में अपनी एक-एक पीठ भी स्थापित कर दी है। जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ स्वामी का मंदिर अपने आप में पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों महत्व रखता है। यह मंदिर सन 1199 ईस्वी में स्थानीय नरेश अनंग भीम देव बनवाया और उसमें प्राचीन काष्ठ प्रतिमाओं को स्थापित किया। यह मंदिर 192 फुट चौड़ा है मंदिर का घेरा 665 फुट लम्बा और 615 फुट चौड़ा है। मंदिर के चारों दिशाओं में चार फाटक हैं। पूर्व दिशा का द्वार बहुत सुंदर बनाया गया है इसे सिंहद्वार कहते हैं। इस द्वार के दोनों ओर एक-एक सिंह की मूर्ति बनी है। इसी द्वार पर काले पत्थर का एक स्तंभ 35 फुट लंबा है उस पर गरुड़ की मूर्ति बनी है। इसे गरुड़ स्तम्भ कहते हैं। पश्चिम के द्वार पर दो बाघों की मूर्तियां है उत्तर और दक्षिण दिशा में भी सुन्दर फाटक हैं। मंदिर के पश्चिम भाग में एक बेदी बनी है। इसे रत्न बेदी कहा जाता है। यह तो सभी जानते हैं कि जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी,(श्री कृष्णा) सुभद्रा और बलदाऊ जी की मूर्तियां हैं। यह प्रमाण मिलता है कि मालवा देश का राजा इन्द्रद्युम्न  बहुत धर्मात्मा थे। एक बार जटिल नामक एक मुनि राजा के पास पहुंचे। उन्होंने राजा से कहा हे राजन आप अपने परिवार के साथ उड़ीसा के नीलांचल के पास जाकर अपना आवास बनाएं। राजा ने अपने पुरोहित को उस स्थान का पता लगाने के लिए भेजा। पुरोहित जी उड़ीसा प्रान्त की यात्रा पर चल दिए। पुरोहित विद्यापति अपनी लम्बी यात्रा पूरी करके उड़ीसा प्रांत के नीलांचल पर्वत पर पहुंचे। वहां पर पुरोहित की भक्त विश्वासु से भेंट हुई भक्त विश्वासु शबर संत थे ।शबर भक्त ने अपने पास पुरोहित जी को ठहराया और भगवान जगन्नाथ का प्रसाद खिलाया। जगन्नाथ जी के प्रसाद को सभी लोग बिना छुआछूत के खाते हैं ।प्रसाद में प्रायः भात और दाल ही होता है। प्रसाद में  छुआछूत  का भेद नही रहता है और न ही झूठा छोड़ा जाता है भगवान जगन्नाथ जी का प्रसाद शबर भक्त के यहां खाकर पुरोहित जी रात्रि में वही सोए। पुरोहित जी ने  रात्रि में स्वप्न देखा  कि भगवान जगन्नाथ जी कह रहे हैं पुरोहित तुम वापस अपने राजा के पास जाओ और  अपने राजा को प्रजा सहित यहां ले आओ। स्वप्न में भगवान जगन्नाथ जी का दर्शन प्राप्त पुरोहित विद्यापति धन्य हो गए। पुरोहित जी सन्त शबर से सलाह करके मालवा वापस गए। पुरोहित ने मालवा पहुंचकर अपने राजा से स्वप्न में प्राप्त भगवान जगन्नाथ जी के आदेश को विधिवत सुनाया। पुरोहित जी की बात सुनकर मालवा के राजा इन्द्रद्युम्न अपने कुछ प्रमुख प्रजाजनों और अपने परिवार के साथ जगन्नाथपुरी की यात्रा पर चल पड़े। परिवार के कुछ सदस्य मालवा मे ही रह गये।

राजा इंद्रद्युम्न जगन्नाथ पुरी की उस यात्रा में सर्वप्रथम गंगासागर पहुंचे। गंगासागर में स्नान कर लेने के बाद आगे बढ़े। बीच में कई प्रसिद्ध मंदिरों के दर्शन करते हुए राजा उड़ीसा प्रदेश में पहुंच गए। उसी समय राजा के पास नारद जी पहले ही से उपस्थित थे। नारद जी से राजा ने अपनी बाई आंख फड़कने का कारण पूछा। नारद जी ने कहा-" राजन आपकी एक रानी ने पुत्र जना है। अतः इस समय आपको सूतक दोष  के कारण दर्शन नहीं हो सकते।"- भगवान की ही आज्ञा से उस वृक्ष का सदुपयोग हुआ। देवों की ओर से एक शिल्पी आया। देवों की आज्ञा से वह शिल्पी उससे काष्ठ की मूर्तियां बनाने लगा। देव शिल्पी ने 15 दिनों तक एकांत में रहकर मूर्तियों का निर्माण कियाकुछ दैवी कारणों से तीनों मूर्तियों का निर्माण सर्वांग पूर्ण नहीं हु तीनों मूर्तियां भगवान श्री कृष्ण बलराम और बहन सुभद्रा की थी। मूर्तियों के निर्माण के बाद उनकी स्थापना की समस्या पैदा हुई। नारद और राजा की इच्छा थी कि मूर्तियों की स्थापना ब्रह्मा जी के हाथों कराई जा जाय। वे दोनों ब्रह्मा जी पास पहुॅचे। पृथ्वी पर से ये लोग जब ब्राह्मण जी के पास पहुंचे तो ब्राह्मण जी से इन लोगों की भेंट हुई। राजा को यह सुनकर बहुत चिंता हो गई। नारद जी ने राजा को धीरज बधायां। राजा ने नारद जी की आज्ञा से वहां पर कई यज्ञों का सम्पादन किया। रात्रि में राजा को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ के दर्शन हुए। स्वप्न में भगवान के दर्शन प्राप्त करने पर राजा को बहुत प्रसन्नता हुई। राजा नारद जी की सलाह से समुद्र स्नान के लिए चल दिए। समुद्र स्नान करते समय समुद्र में ही भगवान प्रकट हो गए। भगवान के साथ एक वृक्ष भी प्रकट हुआ। भगवान की आज्ञा से उस वृक्ष को राजा ने यज्ञशाला में रखवाया।
भगवान की ही आज्ञा से उस वृक्ष का सदुपयोग हुआ। देवों की ओर से एक शिल्पी आया। देवों की आज्ञा से वह शिल्पी उससे काष्ठ की मूर्तियां बनाने लगा। देव शिल्पी ने 15 दिनों तक एकान्त में रहकर मूर्तियों का निर्माण किया कुछ दैवी कारणों से तीनों मूर्तियों का निर्माण सर्वांग पूर्ण नहीं हुआ। तीनों मूर्तियां भगवान श्री कृष्ण बलराम और बहन सुभद्रा की थी। मूर्तियों के निर्माण के बाद उनकी स्थापना की समस्या पैदा हुई। नारद और राजा की इच्छा थी कि मूर्तियों की स्थापना ब्रह्मा जी के हाथों कराई जा जाय। वे दोनों ब्रह्मा जी पास पहुॅचे। पृथ्वी पर से ये लोग जब ब्राह्मण जी के पास पहुंचे तो ब्राह्मण जी से इन लोगों की भेंट हुई।

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