आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र के अनुसार जन्माष्टमी जन्माष्टमी व्रत एवं जयंती व्रत एक ही है या यह दो व्रत है। काल निर्णय ने इन दोनो को पृथक-पृथक माना है। क्योंकि दो पृथक-पृथक नाम आये हैं। दोनों के निमित्त (अवसर) पृथक है ।प्रथम तो कृष्ण पक्ष की अष्टमी और द्वितीय रोहिणी से संयुक्त कृष्ण पक्ष की अष्टमी है। दोनों की विशेषताएं पृथक हैं क्योंकि जन्माष्टमी व्रत में शास्त्र में उपवास की व्यवस्था दी गई है। और जयंती व्रत में उपवास , दान आदि की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त जन्माष्टमी व्रत नित्य है। (क्योंकि इसके न करने से केवल पाप लगने की पाप लगने की बात कही गई है) और जयंती व्रत नित्य और काम्य दोनो ही है, क्योंकि उसके न करने से केवल पाप की व्यवस्था है। प्रत्युत करने से फल की प्राप्ति की बात भी कही गई है। एक ही श्लोक में दोनों के पृथक उल्लेख भी हैं। हेमाद्रि, मदनरत्न और निर्णय सिंधु आदि ने दोनों को भिन्न माना है। निर्णय सिंधु ने यह भी कहा है कि इस काल में लोग जन्माष्टमी व्रत करते हैं न कि जयंती व्रत। किंतु जयंती निर्णय का कथन है कि लोग जयंती मनाते हैं न कि जन्माष्टमी। संभवतः यह भेद उत्तर दक्षिण भारत का है। वाराह पुराण एवं हरिवंश पुराण में दो विरोधी बातें हैं। प्रथम के अनुसार का जन्म आषाढ़ शुक्ल पक्ष के द्वादशी को हुआ था। हरिवंश पुराण के अनुसार जन्म के समय अभिजित नक्षत्र और विजय मुहूर्त था। संभवत इन उक्तियों में प्राचीन परंपराओं की छाप है। मध्यकालीन निबंधों में जन्माष्टमी व्रत के संपादन की तिथि और काल के विषय में कुछ विवेचन मिलता है।कृत्यतत्व, समय मयूख और निर्णय सिन्धु में इस विषय में निष्कर्ष दिए गए हैं।
संकल्प और प्राण प्रतिष्ठा
व्रती को किसी नदी या तालाब या कहीं भी तिल के साथ दोपहर में स्नान करके यह संकल्प करना चाहिए -"मैं कृष्ण की पूजा उनके सहगामियों के साथ करूंगा"-। उसे सोना या चांदी वाली श्रीकृष्ण प्रतिमा बनवानी चाहिए। अभाव में चित्र से भी काम लिया जा सकता है। प्रतिमा के गालो को स्पर्श करना चाहिए और मंत्रों के साथ उसकी प्राण प्रतिष्ठा भी करनी चाहिए। उसे मंत्र के साथ देवकी व उनके शिशु श्री कृष्ण का ध्यान करना चाहिए तथा वासुदेव, देवकी ,नन्द,यशोदा बलदेव, एवं चंडिका की पूजा- स्नान, धूप ,गन्ध, नैवेद्य आदि के साथ मंत्रों के साथ करनी चाहिए। उसे प्रतीकात्मक ढंग से जातकर्म ,नभि- विच्छेदन, षष्टि पूजा एवं नामकरण संस्कार आज करना चाहिए। जब चंद्रोदय (अर्द्धरात्रि के थोड़े देर उपरांत )के समय में किसी वेदी पर अर्ध्य प्रदान करना चाहिए। अर्घ्य में शंख से जल अर्पण होता है जिसमें पुष्प, चंदन, लेप डाले हुए रहते हैं ।यह सब मंत्र के साथ में ही होता है ।उसके उपरांत व्रती को चंद्रमा को नमन करना चाहिए और दंडवत झुक जाना चाहिए तथा वासुदेव के विभिन्न नाम वाले स्त्रोतों का पाठ करना चाहिए और अंत में प्रार्थना करनी चाहिए।
व्रत की विधि
व्रत के दिन व्रती को सूर्य सोम, चंद्रमा ,यम ,काल, दोनों संध्याओं (प्रातः एवं सांय) दिन ,रात्रि, पवन, दिक्पालो भूमि , वायु दिशाओ के निवासिओं एवं देव का वाहन करना चाहिए।जिससे वे देव गण उपस्थित हों। व्रती को अपने हाथ पर जलपूर्ण कलश रखना चाहिए। जिसमें कुछ फल पुष्प और अक्षत। और महिने आदि का नाम लेकर संकल्प करना चाहिए । ऐसा उच्चारण करना चाहिए कि -"मैं अपने पापो से छुटकारा प्राप्त करने और परम ब्रह्म श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करने के लिए यह व्रत कर रहा हूं।"- पुनः वह वासुदेव को संबोधित कर 4 मंत्रों का उच्चरण करे। जिसके उपरांत वह संकल्प को एक पात्र में रख दें। उसे देव पूजन के लिए प्रसूति गृह का निर्माण करना भी चाहिए।
जिसमें जल से जल से भरा पात्र, आम्रदल, पुष्पमालाएं आदि रखना चाहिए। अगरू जलाना चाहिए और शुभ वस्तुओ से अलंईरण करना चाहिए।उसमे षष्ठी देवी की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिए।। गृह या दीवारों के चतुर्दिक देवों एवं गन्धर्वों के चित्र बनवाने चाहिए (जिसमे हाथ जुड़े हुए हों)। वासुदेव (हाथ में तलवार से युक्त), देवकी, नन्द, यशोदा गोपियों, कंस -रक्षकों, यमुना नदी, कालिया नाग तथा गोकुल की घटनाओं से संबंधित चित्र आदि बनवाने चाहिए। प्रसूति गृह में परदों से युक्त निस्तर करना चाहिए।
प्रत्येक व्रत के अन्त ही में पारण होता है जो व्रत के दूसरे प्रातः किया जाता है। जन्माष्टमी एवं जयंती के उपलक्ष में किए गए उपवास के उपरांत पारण के विषय में कुछ विशिष्ट नियम है। ब्रह्मवैवर्त पुराण,काल निर्णय में आया है कि जब तक अष्टमी चलती रहे या उस पर रोहिणी नक्षत्र है तब तक पारण नहीं करना चाहिए ।जो ऐसा नहीं करता है अर्थात जो ऐसी स्थिति में पारण कर लेता है वह अपने किए कराए पर ही पानी फेर लेता है और उपवास से प्राप्त फल को नष्ट कर देता है।अतः तिथि या नक्षत्र के अन्त में ही पारण करना चाहिए।
रात्रि जागरण और प्रातः पूजन
शुभ रात्रि जागरण पर प्रातः पूजन कार्य महत्व है। को रात्रि भृत्य की प्रशंसा के अस्त्रोत्तरो पौराणिक कथाओं गानों एवं नृत्यों में संलग्न रहना चाहिए। दूसरे दिन प्रातः काल के दृश्यों के संपादन के उपरांत प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए। सोना, गांव, वस्त्रों का दान मुझ पर कृष्ण प्रसन्न हो इन शब्दों के साथ उसे देवकी देवी की साधना करना चाहिए।
इस व्रत में रात्रि जागरण और प्रातः पूजन कार्य महत्वपूर्ण माना जाता है ।व्रती को रात्रि भर कृष्ण के प्रशंसा के स्त्रोतों, पौराणिक कथाओं, गानों एवं नृत्यों में संलग्न रहना चाहिए। दूसरे दिन प्रातः काल के कार्यों के संपादन के उपरांत,कृष्ण प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए।इसके अतिरिक्त सोना, चांदी,गौ, वस्त्रों का दान-" मुझ पर कृष्ण प्रसन्न हो"- इन शब्दों के साथ करना चाहिए । -"यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत्।भौमस्य ब्रह्मणो गुप्त्यै तस्मै ब्रह्मात्मने नमः।।सुजन्म-वासुदेवाय गो ब्राह्मण हिताय च।शान्तिरस्तु शिव चास्तु।।"-का पाठ करना चाहिए तथा कृष्ण प्रतिमा किसी ब्राह्मण को दे देनी चाहिए और पारण करने के उपरान्त व्रत को समाप्त करना चाहिए।
उद्यापन और पारण
उद्यापन और पारण में अंतर है। धारण के उपरांत व्रती को -" ओम भूताय भूतेश्वराय भूतपतये भूतसंभवाय गोविंदाय नमो नमः"- नामक मंत्र का पाठ करना चाहिए। कुछ परिस्थितियों में पारण रात्र में भी होता है विशेषतः वैष्णव में जो व्रत को नित्य रूप में करते हैं न कि काम्य रूप में। उद्यापन एवं पारण की अर्थों में अंतर है। एकादशी और जन्माष्टमी जैसे व्रत जीवन भर किए जाते हैं। उनमें जब कभी व्रत किया जाता है तो पारण होता है।किंतु जब कोई व्रत केवल एक सीमित काल तक ही करता है और उसे समाप्त कर लेता है तो उसकी पर समाप्ति का अंतिम कृत्य है उद्यापन।
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