अखंड सौभाग्य की रक्षा के लिए स्त्रियां रखती हैं (तीज) हरितालिका व्रत

हरितालिका तीज व्रत 9 सितम्बर दिन गुरूवार को

आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र,

वाराणसी से प्रकाशित हृषीकेश पंचाङ्ग के अनुसार 9 सितम्बर दिन बृहस्पतिवार को सूर्योदय प्रातः 5 बजकर 50 मिनट पर और तृतीया तिथि का मान प्रातः काल 3 बजकर 59 मिनट से प्रारम्भ होकर सम्पूर्ण दिन और रात को 2 बजकर 14 मिनट तक है। हस्त नक्षत्र सायंकाल 5 बजकर 14 मिनट तक और शुक्ल योग भी रात को 12 बजकर 19 मिनट तक है। चन्द्रमा की स्थिति कन्या राशिगत है। इस व्रत के लिए हस्त नक्षत्र और कन्या राशिगत चन्द्रमा को प्रशस्त माना जाता है। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार -भाद्रस्य कजली कृष्णा शुक्ला च हरितालिका।"-इस मान्यता के अनुसार भाद्रशुक्ल तृतीया को हरितालिका का व्रत किया जाय। इसमें मुहुर्त मात्र भी परा तिथि ग्राह्य की जाती है। क्योंकि द्वितीया पितामह की और चतुर्थी पुत्र की तिथि है। अतः द्वितीया का योग निषेध और चतुर्थी का योग श्रेष्ठ होता है।शास्त्र में इस व्रत के लिए सधवा, विधवा सबको आज्ञा है। स्त्रियों को चाहिए कि वेश- "मम उमामहेश्वर सायुज्य सिद्धये हरितालिका व्रतमहं।" -यह संकल्प करके मकान को मण्डपादि से सुशोभित करके पूजा सामग्री एकत्र करके शिव परिवार की अर्चना करें। विशेष रूप से इस व्रत में माॅ उमा या गौरी की उपासना की जाती है।

भविष्योत्तर पुराण के अनुसार -"भाद्रस्य कजली कृष्णा शुक्ला च हरितालिका"-भादों के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हरितालिका व्रत किया जाता है। इसमे मुहुर्त मात्र भी तृतीया हो तो परा तिथि ग्रहण की जाती है। क्योंकि द्वितीया पितामह की और चतुर्थी पुत्र की तिथि है, अतः द्वितीया का योग निषेध और चतुर्थी का योग श्रेष्ठ होता है। शास्त्र मे इसके लिए सधवा-विधवा दोनो के लिए आज्ञा है। स्त्रियों को चाहिए कि वे--"मम उमामहेश्वर सायुजय सिद्धये हरितालिका व्रतमहं करिष्ये" -से संकल्प करके मण्डप बनाकर या किसी काष्ठ स्थापित कर, उस पर शिव परिवार को रखकर पूजा करें।इस व्रत में शास्त्र के अनुसार एक कलश स्थापित कर या चित्रमयी या प्रतीक रूप में सुपाड़ी रखकर अर्जन किया जा सकता है।शिव-पार्वती के नाम मन्त्रों का ऊच्चारण कर षोडशोपचार विधि से पूजन समपन्न करने के पश्चात --"देवि देवि उमे गौरि त्राहि माम करूणानिधे।ममापराधाःक्षन्तव्या भुक्ति मुक्ति प्रदा भव।।"-से प्रार्थना करें।

पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और झारखंड आदि प्रांतों में भाद्रपद शुक्ल तृतीया को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अखंड सौभाग्य की रक्षा के लिए बड़ी श्रद्धा विश्वास और लगन के साथ (तीज) हरितालिका रखती हैं। त्याग, तपस्या और विश्वास एवं लगन के साथ स्त्रियां यह व्रत रखती हैं ।यह बड़ा ही कठिन पड़ता है इसमें फलाहार की बात तो दूर रही, निष्ठा वाली स्त्रियां जल तक नहीं ग्रहण करती हैं ।व्रत के दूसरे प्रातः काल स्नान के पश्चात सौभाग्य द्रव्य एवं अन्नादि का दान करने के पश्चात ही जल पीकर पारण करती हैं ।इस व्रत में मुख्य रूप से शिव ,पार्वती और गणेश जी का पूजन किया जाता है।इस व्रत को सर्वप्रथम गिरिराजनन्दिनी पार्वथी ने किया, जिसके फलस्वरूप भगवान शिव उन्हे पतिरूप में प्राप्त हुए थे। स्त्रियाॅ व्रत की कथा भी सुनती हैं जो पार्वती के जीवन में घटित हुई थी। उसमें पार्वती जी के त्याग संयम और निष्ठा पर प्रकाश डाला गया है। जिसके सुनने वाली स्त्रियों का मनोबल ऊंचा उठता है।

सखियों के उपचार से होश में आने पर उन्होंने अपना शिव विषयक अनुराग सूचित किया। सखियाॅ बोली-" तुम्हारे पिता तुम्हें लिवा जाने के लिए आते ही होंगे ।जल्दी चलो हम किसी दूसरे वन में जाकर छुप जाएं।"- ऐसा ही हुआ। उस वन में एक पर्वतीय कन्दरा के भीतर पार्वती जी ने शिवलिंग बनाकर उपासनापूर्वक उनकी अर्चना आरंभ की। इससे सदाशिव का आसन डोल गया।वे रीझकर पार्वती के समक्ष प्रकट हुए और उन्हें पत्नी रूप में वरण करने का वचन देकर अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात अपनी पुत्री का अन्वेषण करते हुए हिमवान भी वहां आ पहुंचे और सब बात जानकर अपनी पुत्री पार्वती का विवाह भगवान शंकर के साथ कर दिया ।अंततः पार्वती के अविचल अनुराग की विजय हुई। देवी पार्वती ने भाद्र शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र में उपासना की थी इसलिए इस तिथि को यह व्रत किया जाता है। तभी से भाद्रपद शुक्ल तृतीया को स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु के लिए तथा कुमारी कन्या ने अपने मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए हरितालिका तीज का व्रत करती चली आ रही हैं।आलिभिर्हरिता यस्मात् तस्मात् सा हरितालिका"- सखियों के द्वारा हरी गई-- इस व्युत्पत्ति के अनुसार व्रत का नाम हरितालिका हुआ ।इस व्रत के अनुष्ठान से नारी को अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

कहते हैं की दक्ष कन्या सती जब अपने पिता के यज्ञ में अपने पति शिव का अपमान सहन न कर सकी तो योगाग्नि मे दग्ध हो गई। पुनः नूतन जन्म मे भी पूर्व जन्म की स्मृति अणुण्ण बनी रही और वे नित्य निरन्तर शिव के चरणारविन्दों के चिन्तन में संलग्न रहने लगी। जब वह कुछ वयस्क हो गई तब मनोनुकूल वर की प्राप्ति के लिए पिता की आज्ञा से तपस्या करने लगीं। उन्होंने वर्षों तक निराहार रहकर बड़ी कठोर साधना की। तब उनकी तपस्या फलोन्मुख हुई। तब एक दिन देवर्षि नारद जी महाराज गिरिराज हिमालय के यहां पधारे शिव। इसे हिमवान ने अहोभाग्य माना और देवर्षि की बड़ी श्रद्धा के साथ पूजा की। कुशल क्षेम के पश्चात नारद ने कहा --भगवान विष्णु आपकी कन्या का वरण करना चाहते हैं। उन्होंने मेरे द्वारा यह संदेश का भेजवाया है। इस संबंध में आपका जो विचार हो उसे मुझसे अवगत कराएं नारद जी ने अपनी ओर से भी इस प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया। हिमवान इस पर राजी हो गए और उन्होंने स्वीकृति दे दी। देवर्षि नारद पार्वती के पास जाकर बोले--"उमे छोड़ो यह कठोर तपस्या ।तुम्हें अपनी साधना का फल मिल गया। तुम्हारे पिता ने भगवान विष्णु के साथ तुम्हारा विवाह तय कर दिया है।" -यह कहकर न, वे चले गए। उनकी बात का विचार कर पार्वती को बड़ा कष्ट हुआ। वे मूर्छित होकर गिर पड़ी।

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