नवरात्र के नौ दिनों का विधान
शक्ति पूजन विधान
दुर्गा देवी एक शक्ति स्रोत हैं। उनके तीन रूप हैं। युद्ध-अभियोजन-उपरी बाधा निवारण में महाकाली की उपासना की जाती है। समृद्धि एवं धन प्राप्ति के लिए महालक्ष्मी की उपासना की जाती है। बौद्धिक विकास, विद्या प्राप्ति एवं मानसिक शान्ति के लिए महासरस्वती की अर्चना की जाती है। पुनश्च ये त्रिशक्ति त्रिगुणित होकर 3×3=9 नवशक्ति (नवदुर्गा) हो जाती है। नवरात्र में प्रथम दिवस शैलपुत्री, द्वितीय दिवस ब्रह्मचारिणी, तृतीय दिवस चन्द्रघण्टा, चतुर्थ दिवस कूष्माण्डा, पंचम दिवस स्कन्दमाता, षष्ठ दिवस कात्यायिनी, सप्तम दिवस कालरात्रि, अष्टम दिवस महागौरी एवं नवम दिवस सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है।
शक्ति की उपासना में रात्रिकालीन उपासना का विशेष महत्तव है। अर्द्धरात्रि अर्थात निशीथ सन्ध्या सबसे अधिक फलदायी मानी जाती है।मध्यरात्रि में साधना करने से साधक को वाक् सिद्धि (जो बोलता है, वह भविष्य में सत्य हो जाता है) होती है। "निशिथे तुरीयसन्ध्यां जपत्वा वाक् सिद्धिर्भवति" इस प्रकार शक्ति उपासना में दिन की तुलना में रात्रि उपासना शीघ्र फलदायी मानी जाती है। वर्ष में दो स्तम्भ इस प्रकार के हैं, जो ॠतु परिवर्तन के आधार है।ये मास ग्रीष्म और वर्षा की समाप्ति और शीत के प्रारम्भ का द्योतक है। ॠतुपरिवर्तन के साथ-साथ अनेक प्रकार के ज्वरादि रोग फैल जाते है।इस रोगाणुओं की शान्ति एवं इनके दुष्प्रभाव के शमन के लिए शारदीय एवं वासन्तिक पूजा की शास्त्रीय परम्परा रही है।-"शरद वसन्त नामाम्नौ द्वौ दानव भयंकरौ। तयोरूपद्रवशाम्यर्थमियं पूजा द्विधामता।।" शारदीय एवं वासन्तिक पूजा नौ रात्रि के अन्तर्गत में की जाती है, अतः इन्हें शारदीय (शरद् ॠतु से सम्बद्ध) एवं वासन्तीय (वसन्त ॠतु से सम्बन्धित) नवरात्र कहा जाता है। शारदीय नवरात्र को "बोधनास्य" तथा वासन्ती नवरात्र को "शयनास्य" नवरात्र भी कहते हैं, क्योंकि शारदीय नवरात्र के बाद देवोत्थान और वासन्तिक नवरात्र के बाद देवशयन कर जाते हैं। इस ॠतु परिवर्तन के कारण महामारी, ज्वर, शीतला, छोटी माता, बड़ी माता, कफ, खांसी, जुकाम कि प्रवेश होता है। इस प्रकार के रोगों के उपशमन के लिए हवनादि प्रयोग दिन की अपेक्षा रात्रि मे अधिक प्रभावशाली होते हैं। सुगन्धित पौधों और लताओं की सुगन्ध का आनन्द केवल रात्रि में ही सुलभ हो सकता है।यज्ञाहुति की औषधियुक्त गन्ध रात्रि में तीव्र प्रभाव डालती है। नौ दिनो तक किया जाने वाला यह अनुष्ठान नवरात्र कहलाता है।
"नवभिः रात्रिभिः सम्पद्यते यत् तत् नवरात्रम्।"
विशेष नैवेद्य विधान
प्रथम दिवस आरोग्य के लिए गाय का घी, द्वितीय दिवस आयुष्य वृद्धि के लिए शक्कर, तृतीय दिवस दुख निवृत्ति के लिए पायस (खीर), चतुर्थ दिवस सुख समृद्धि के लिए मालपुआ, पंचम दिवस शारीरिक पुष्टि के लिए केला, षष्ठ दिवस आकर्षण हेतु मधु, सप्तम दिवस शोक मुक्ति के लिए गुड़, अष्टम दिवस संतान सुख में वृद्धि ने लिए श्रीफल (नारियल) एवं नवम दिवस में भय मुक्ति के लिए तिल भेंट करते हैं।
"आश्विन सितेपक्षे नानाविध महोत्सवैः। प्रसादयेषु श्रीदुर्गा चतुर्वगफलान्वितः।"
नवरात्र के नौ दिनों में विविध प्रकार के पूजा विधान, विविधोपचार पूजा, विविध पूजा सामग्री समर्पण, शक्तिपूजा आदि किये जाते हैं।
सौभाग्य प्राप्ति हेतु विधान
महिलाएं सौभाग्य सुख को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रथम दिवस केश प्रसाधन सहित आंवले का तेल, द्वितीय दिन केश विन्यास करने के लिए रिबिन फीते आदि, तृतीय दिवस सिन्दूर, चतुर्थ दिवस-सुरमा, काजल, तिलक, मधुपर्क, पंचम दिवस अंगराग, पाउडर, चन्दन, आभूषण, षष्ठ दिवस-पुष्पमाला, सप्तम दिवस में गृहमध्य में विविधोपचार पूजा, अष्टम दिवस में उपवास पूर्वक राजोपचार (विशिष्ट) पूजा, नवम दिवस में बलि एवं हवनादि करते हैं।
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