कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से सूर्योपासना का व्रत प्रारंभ

 

चतुर्थ दिवसीय सूर्य व्रत 8 से 11 तक
आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र, दीपोत्सव पर्व होने के बाद कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से सप्तमी तक सूर्यषष्ठी महोत्सव मनाया जाता है। माताएं चार दिन का यह कठोर व्रत पुत्र के लिए करती हैं। इस व्रत में  शक्ति अर्थात माता षष्ठी एवं ब्रह्म अर्थात सूर्यदेव दोनो की उपासना होती है।इसलिए इसे सूर्यषष्ठी कहा जाता है। इस व्रत से जहाॅ भगवान भुवन भास्कर समस्त वैभव प्रदान करते हैं,वहीं माता षष्ठी प्रसन्न होकर पुत्र देती हैं, साथ ही पुत्रो की रक्षा भी करती हैं। यह व्रत प्रमुख रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, नेपाल के तराई एवं आसपास के स्थानों पर अधिक प्रचलित है। यहाॅ यह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।यह चार दिवसीय व्रत इस वर्ष निम्नलिखित दिवसो पर है और इस विधि से सम्पन्न होता है।

नहाय खाय

यह 8 नवम्बर दिन सोमवार को है।इस दिन सूर्योदय 6 बजकर 32 मिनट पर  और चतुर्थी तिथि का भान सायंकाल 6 बजकर 16 मिनट तक है।इस दिन मूल नक्षत्र और सुकर्मा योग है। चन्द्रमा की स्थिति अपने मित्र बृहस्पति के राशि धनु पर रहेगा। इस दिन वैनायकी गणेश चतुर्थी व्रत भी है। इस दिन महिला जलाशय मे जाकर स्नान कर कद्दू भात बनाती हैं। वह सबको भोजन करवाती हैं, लेकिन स्वयं संकल्पबद्ध होकर उपवास करती हैं तथा रात्रि में भूमि पर या काष्ठासन पर शयन करती है।

द्वितीय दिवस खरना

यह 9 नवम्बर दिन मंगलवार को है।इस दिन सूर्योदय 6 बजकर 33 मिनट पर और पंचमी तिथि सायंकाल 4 बजकर 3 मिनट तक ,इस दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्र और धृति योग है। चन्द्रमा अपने पूर्व दिन की राशि पर स्थित रहेंगे।इस दिन व्रती महिला पंचमी तिथि में सूर्यदेव और षष्ठी माता की पूजा करने के पश्चात चतुर्थी के दिन किया उपवास खोलती हैं। 

तृतीय दिन बुधवार

यह निर्जल उपवास का रहेगा। सूर्योदय 6 बजकर 33 मिनट पर ही और षष्ठी तिथि का मान दिन में 1 बजकर 58 मिनट तक पश्चात सप्तमी है। नक्षत्र उत्तराषाढ़ है।यह रात को 9 बजकर 36 मिनट तक रहेगा।उत्तराषाढ़ का नक्षत्र स्वामी सूर्य ही हैं।इसलिए यह व्रतार्चन के लिए पूर्ण प्रशस्त और उत्तम है।यह व्रती महिलाओं के लिए कठोर उपवास का दिन रहता है,जल भी ग्रहण नही करती हैं।मध्याह्न में सूप और दौरी(डलिया)सहित धूमधाम से षष्ठी माता और सूर्यदेव का गीत गाती हुई जलाशय पर पहुॅचती हैं।सूप में ठेकुआ(जो गेहूॅ के आंटे और गुड़ से बनता है और इस पर सूर्यदेव का चक्र अंकित रहता है।)तथा लडुआ(चावल के आंटे का) और विभिन्न प्रकार के फलों का प्रसाद होता है।इस व्रत में सूप और डलिया ढोने का बड़ा महत्व है।इसे व्रती महिला का पति,पुत्र या घर का कोई पुरूष ही उठाकर जलाशय तक लाते हैं।सायंकाल व्रती महिला जलाशय मे खड़ी होकर सूर्यास्त के समय सूर्यदेव को जल एवं दूध से अर्घ्य देती है,साथ ही सूप में लाया प्रसाद चढ़ाती है।इस दिन सूर्यास्त 5 बजकर 27 मिनट पर है।इस समय सांयकालीन अर्घ्य प्रदान किया जायेगा।

सूर्योदय के समय अर्घ्य का चतुर्थ दिवस

यह 11 नवम्बर दिन बृहस्पतिवार को हैं।इस दिन सूर्योदय 6 बजकर 34 मिनट पर है।इसी समय सूर्योदय कालीन अर्घ्य दिया जायेगा।इस दिन श्रवण नक्षत्र है।जो निर्मल बुद्धि और वैभव की वृद्धि करने वाला रहेगा।सप्तमी नक्षत्र दिन में 12 बजकर 10 मिनट तक है।इस चौथे दिन भी व्रती महिला जलाशय मे ख़ड़ी होकर अरूणोदय की प्रतिक्षा करती हैं।जैसे ही क्षितिज पर अरूणिमा दिखती है,वह मन्त्रोचार के साथ भगवान भुवन भास्कर को अर्घ्य प्रदान करती हैं।तत्पश्चात ब्राह्मणों को दक्षिणा देती है और प्रसाद वितरण के बाद व्रत का पारण करती है।


षष्ठी देवी की प्रतिमा का विसर्जन

श्रद्धालु व्रत के प्रथम दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल चतुर्थी पर सायंकालीन अर्घ्य से पूर्व षष्ठी देवी की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर माता का आवाहन करते हैं। यह दिन 8 नवमबर है। सप्तमी के दिन सूर्योदय पर अर्घ्य के पश्चात माता षष्ठी का पूजन कर उस प्रतिमा का विसर्जन करते हैं।ऐसा माना जाता है कि पंचमी के सायंकाल (इस वर्ष 9 नवम्बर) से माता का आगमन हो जाता है।

गीले आंचल से बच्चों को पोछने की परम्परा

कार्तिक शुक्ल सप्तमी को सूर्योदय को अर्घ्य देने के पश्चात व्रती महिला जलाशय से निकलते ही अपने गीले आंचल से परिवार के छोटे बच्चो को पोछती है।मान्यता है कि इससे बच्चे वर्ष भर बीमार नही होते हैं।
इस व्रत में निर्जला उपवास (10 नवम्बर) के दिन रात में घाट से लौटने के बाद अपने आंगन या कहीं-कहीं घाट पर ही दउरा की पूजा की जाती है। धूप,दीप से पूजन कर पुनः कोशी भरी जाती है।अर्धरात्रि को घाट पर पहुॅचती हैं। निर्जल उपवास के दिन पूर्वाह्न में जाकर घाट पर छठ माता की पूजा की जाती है,फिर व्रती महिला घर आती है। दोपहर के बाद घाट पर जाये,और पूजन सामग्री चढ़ाये और दीप प्रज्जवलित करे तथा प्रसाद भी अर्पित करे।दूध और जल चढ़ाये और जलता दीप जल में प्रवाहित कर दे।उसी दिन ब्राह्मबेला में(भोर में)परिजनों के साथ घाट पर निकल जाय और जल मे खड़े होकर सूर्य के निकलने की प्रतिक्षा करे।हाथ में प्रज्जवलित दीपक ले।जब सूर्य का लाल गोल बिम्ब दिखने लगे तो दीप जल मे प्रवाहित कर दे और अंजलि से जल अर्पित करे,दूध से अर्घ्य दे और प्रसाद भगवान सूर्य को अर्पित करे।बाद मे स्वयं प्रसाद अपने आंचल में ले और आपने आंचल के प्रसाद को स्वयं ग्रहण करे, किसी को न दें।शेष प्रसाद का वितरण कर घर आयें और हवन करें तथा काली मिर्च और शरबत के व्रत तोड़े।

व्रत कथा

प्रथम स्वायम्भुव मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत निःसन्तान थे।उन्होनें महर्षि कश्यप के परामर्श से पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्ट यज्ञ किया, फलस्वरूप उनकी मालीनी नामक रानी के पुत्र तो हुआ लेकिन वह मरा हुआ था। प्रियव्रत अपने मृतक पुत्र को छाती से लगाकर  बहुत विलाप करने लगे हो उसी समय षष्ठी  माता ने प्रकट होकर कहा मैं ब्राह्मण की मानस पुत्री षष्ठी देवी हूं। मैं विश्व के सभी बच्चों की रक्षिका हूं एवं अपुत्रो को पुत्र भी प्रदान करती हूं। इसके साथ ही षष्ठी देवी ने प्रियव्रत के बच्चे के शव का स्पर्श किया तो वह जीवित हो गया। इससे प्रसन्न होकर राजा प्रियव्रत ने देवी की स्तुति की ।मां सृष्टि ने उसे आज्ञा दी कि तुम ऐसी व्यवस्था करो कि सभी आसपास ही मेरी पूजा करें ।इस पर राजा प्रियव्रत ने आदेश जारी कर दिया कि प्रति मास शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को षष्ठी महोत्सव के रूप में मनाया जाए ।तभी से बच्चों के जन्म, नामकरण ,अन्नप्राशन आदि के अवसर पर सष्टि पूजन प्रारम्भ हुआ।प्रसूता का  प्रथम स्नान भी इसी दिन करवाने की परम्परा है। कहीं यह भी बताया गया है कि राजा प्रियव्रत ने षष्ठी  देवी की प्रेरणा से सूर्य षष्ठी आने पर रानी सहित संकल्प के साथ प्रकार षष्ठी माता की पूजा की। फलस्वरूप उसे अत्यन्त सुन्दर एवं मेधावी पुत्र की प्राप्ति हुई थी। 

दूसरी कथा: प्राचीन काल में एक पुत्रहीन महिला ने संकल्प लिया था कि पुत्र होगा तो षष्ठी माता का  का व्रत रखेगी। उसके सुन्दर पुत्र हो गया ,लेकिन
वह  किसी न किसी कारण से व्रत को टालती रही। विवाह के बाद उसके पुत्र की बरात लौटते समय मार्ग में मृत्यु हो गई। इस पर नववधू के सामने षष्ठी माता एक वृद्धा के रूप में के में प्रकट हुए  और बोली कि यह सब तुम्हारी सास के व्रत के टालने के कारण हुआ है।यदि वह माॅ षष्ठी का व्रत करेगी तो मैं तुम्हारे पति को जीवित कर  दूंगी। तुम घर पहुंचते ही अपनी सास को इस घटना के बारे में बता देना। बहू  ने जब सास को इस घटना के बारे मे बताई तो सास को भी बहुत पश्चाताप हुआ। उसने षष्ठी देवी से क्षमा प्रार्थना कर सूर्य षष्ठी का व्रत आरम्भ किया।  सृष्टि माता और  सूर्य देव की कृपा से उसके घर में समस्त वैभव और सुख शान्ति हो गई।कहा जाता है कि श्री राम और द्रौपदी ने भी इस व्रत को किया था।भगवान राम ने राज्याभिषेक के पश्चात सीता के साथ पुत्र की प्राप्ति कै लिए यह  व्रत किया था और द्रोपदी ने भी अज्ञातवास के दौरान राजपाट की प्राप्ति की मनोकामना से सूर्य षष्ठी का व्रत किया था।


 

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