उ0प्र0 दिवस पर सिक्कों की आनलाइन छायाचित्र प्रदर्शनी

गोरखपुर। राजकीय बौद्ध संग्रहालय, (संस्कृति विभाग, उ0प्र0) द्वारा उ0प्र0 दिवस के अवसर पर सोमवार को ‘सिक्कों की यात्रा विषयक आनलाइन छायाचित्र प्रदर्शनी‘ का आयोजन किया गया है। जिसे सोशल मीडिया पर संग्रहालय के यूट्यूब चैनल, फेसबुक, ट्वीटर, लिंकडिन तथा व्हाट्स एप्प आदि के माध्यम से देखा जा सकता है।

सिक्के हमारे इतिहास के काल निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और वे वास्तविक विवरण उपलब्ध कराने में मील का पत्थर साबित होते हैं। उत्कृष्ट कोटि की सिक्कों की प्रदर्शनी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराती है। कालान्तर में वस्तुओं का आदान प्रदान की आवश्यकता विनिमय  ( EXCHANGE)   के रूप में एक व्यवस्थित रूप ले लिया। सिक्कों के विकास के प्रथम चरण की शुरूआत भी यहीं से मानी जाती है। विभिन्न काल में प्रचलन में प्रयोग किये गये विशेषकर प्राचीन सिक्कों को प्रदर्शनी में देखा जा सकता है।  

संग्रहालय के उप निदेशक डाॅ0 मनोज कुमार गौतम ने कहा कि प्राचीन सिक्के राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर हैं। इनकी सम्यक सुरक्षा एवं भावी पीढ़ी के उपयोगार्थ इन्हेें संरक्षित रखना तथा जनसामान्य विशेष कर विद्यार्थियों में अपने धरोहर के प्रति अभिरूचि उत्पन्न करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। 206     ईसा पूर्व से लेकर 300 ई0 तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से सिक्कों की सहायता से प्राप्त होता है। सिक्के एक ओर जहाॅं राजाओं के वंशवृक्ष, उनके महान कार्य, शासन काल तथा उनके राजनीतिक एवं धार्मिक विचार पर प्रकाश डालते हैं, वहीं दूसरी ओर राजा की व्यक्तिगत अभिरूचि, सम्पन्नता एवं राज्य की सीमाओं को भी निर्धारित करने में सहायक होते हैं।

हड़प्पा और मोहनजोदड़ों में प्राप्त विशाल भण्डारों के अवशेष इस ओर संकेत करते हैं कि ईसा पूर्व के तीसरी सहस्राब्दी तक विनिमय के माध्यम के रूप में अनाज का उपयोग होता रहा होगा। आगे चलकर वैदिक काल में गायों को विनिमय का माध्यम माना गया। उत्तर वैदिक साहित्य में तो दक्षिणा के रूप में ऋत्विकों को गायें दिये जाने के अनेक उल्लेख हंै। पाणिनी के अष्टाध्यायी से ज्ञात होता है कि वैदिकोत्तर काल में भी गायें विनिमय की माध्यम थीं। कालान्तर में जब यह महसूस हुआ कि छोटी वस्तुओं के क्रय में गाय का उपयोग नहीं किया जा सकता था, तब विनिमय के माध्यम के विकल्प के रूप में ‘निष्क‘ का प्रयोग प्रारम्भ हुआ, जो कदाचित हार की तरह का कोई आभूषण था। आगे चलकर गाय और निष्क के बाद विनिमय माध्यम के रूप में सुवर्ण का प्रयोग आरम्भ हुआ, जिसे निश्चित भार या वजन में तौलने के लिए कृष्णल (एक प्रकार का बीज) प्रयोग में लाया गया। परवर्ती साहित्य में कृष्णल को रक्तिका या गुंजा कहा गया है, जो आज रत्ती के नाम से प्रसिद्ध है। 

संग्रहालय द्वारा आयोजित आनलाइन प्रदर्शनी में सिक्कों के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान में उनके ढालने की प्रक्रिया को दर्शाने का प्रयास किया गया है। भारत के प्राचीनतम सिक्के, जिन्हें आहत सिक्का (PUNCHMARKCOIN) के नाम से जाना जाता है, के बनाने तथा उनपर चिन्ह अंकित करने की विधि को भी दिखाया गया है। तत्पश्चात् जनपदों के सिक्के, भारतीय यवन सिक्के एवं सातवाहनों के सिक्कों के छायाचित्र प्रदर्शित किये गये हैं। प्रदर्शनी में कुषाण एवं गुप्त राजाओं के सोने, चांदी एवं तांबे के सिक्कों के अतिरिक्त मध्यकालीन सिक्कों के छायाचित्र भी आकर्षण के केन्द्र हैं। 

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