भारत अपनी भाषाओं के बल पर हर क्षेत्र में करे प्रगति : आचार्य रघुवीर

प्रसिद्ध शिक्षाविद् और संसद सदस्य रहेआचार्य रघुवीरकहा करते थे कि भारत अपनी भाषाओं के बल पर हर क्षेत्र में प्रगति करे, लेकिन तत्कालीन सरकार और उसके अधिकारी ऐसा नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने स्वतंत्रता के प्रारंभ में ही यह प्रावधान कर दिया कि अगले 15 वर्ष तक भारत की शासन—व्यवस्था में अंग्रेजी ही चलेगी।आचार्य रघुवीर ने इसका विरोध करते हुए पाञ्चजन्य (22 सितंबर,1956) में एक लेख लिखा था। उसी लेख को संपादित कर यहां प्रस्तुत किया जा रहा है

 


भारतको 1947 में स्वतंत्रता मिली, यह स्वतंत्रता आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता थी। यद्यपि देश और समानता तथा विचारशील साहित्यगण इस बात से आशा लगाए बैठे थे कि स्वतंत्र भारत में बौद्धिक स्वतंत्रता भी स्थापित होगी और भारतीय भाषाएं नैसर्गिक रूप से देश में अपना स्थान लेंगी। लेकिन जिन अधिकारियों के पास शक्ति आई, उनके अपने स्वार्थ तथा उनकी अपनी शिक्षा इस आशा की समर्थक न बनी। स्वतंत्र भारत का पहला कार्य संविधान रचना का कार्य था। वर्मा आदि देशों में यह कार्य बर्मी भाषा में किया गया, किंतु हमारे देश में संविधान की रचना पूर्व विजेताओं और शासकों की भाषा में ही की गई। विदेशी भाषा के आधार में ही तो शासकगण जनता से पृथक रह सकते थे, और उनकी एक अलग गरिमा रहेगी, ऐसा उनका विश्वास था। इस विश्वास के साथ इन लोगों ने निश्चय किया कि 15 वर्ष तक भारत के प्रशासन,शिक्षा और न्यायालय में अंग्रेजी का साम्राज्य रहेगा।

यह नियम कैसे बन गया? क्या भारत का आत्मगौरव अथवा आत्मविश्वास निद्रा में लीन हो गया था अथवा निद्रा से कभी उठ ही नहीं पाया था? जब कुछ जागृति होती दिखाई पड़ी तो चतुर राजनीतिज्ञों ने कोलाहल मचा दिया कि इससे भारत के टुकड़े हो जाएंगे। यह कोलाहल आज भी बंद नहीं हुआ। संविधान में नियम बनाया गया कि 15 वर्ष के पश्चात शासन की भाषा संबंधी नीति पर विचार करने के लिए तथा भारतीय भाषाओं के अधिकाधिक प्रयोग के और उनको आगे बढ़ाने के लिए एक आयोग नियुक्त किया जाएगा। जब 5 वर्ष व्यतीत हुए, तो बहुत दिन ठहर कर बहुत विलंब करके इस आयोग की नियुक्ति की गई। मासों तक इस आयोग ने भारत का भ्रमण किया। अभी कुछ सप्ताह हुए, आयोग ने अपना प्रतिवेदन शासन को सौंप दिया, जनता व्याकुल थी। वह प्रतीक्षा कर रही थी कि देखें, इस आयोग ने भारतीय भाषाओं की प्रगति बढ़ाने के लिए क्या कुछ कहा है। इस बीच में शिक्षा विभाग ने भिन्न-भिन्न राज्यों के शिक्षा मंत्रियों का सम्मेलन बुलाया। मौलाना आजाद ने सम्मेलन का उद्घाटन किया और उन्होंने सम्मेलन की नीति का प्रतिपादन किया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नेहरू जी ने शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में जो बातें कहीं, वे भारतीय भाषाओं के हृदय को चीरती गर्इं नेहरू जी ने भारत की पंचवर्षीय योजना की सफलता को अंग्रेजी शिक्षा पर आश्रित बताया। उनकी बातों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि अगले 50 वर्ष तक अंग्रेजी में ही खेती होगी और अंग्रेजी में ही धंधे चलेंगे।

स्वतंत्र भारत का पहला कार्य संविधान रचना का कार्य था। वर्मा आदि देशों में यह कार्य बर्मी भाषा में किया गया,किंतु हमारे देश में संविधान की रचना पूर्व विजेताओं और शासकों की भाषा अंग्रेजी में ही की गई।  यानी स्वतंत्रता के साथ ही भारतीय भाषाओं की उपेक्षा होने लगी। उसी का परिणाम है कि आज भी देश की शासन-व्यवस्था में  अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व है।

 इस नीति का अनुसरण करते हुए प्रांतीय शिक्षा मंत्रियों ने प्रस्तावित किया कि माध्यमिक पाठशाला से अंग्रेजी का अध्ययन-अध्यापन किया जाए और 15-16 वर्ष की आयु में विद्यार्थियों को इतनी अंग्रेजी आ जाए कि विश्वविद्यालय में जाकर वे अंग्रेजी द्वारा विषयों का अध्ययन कर सकें। भारतीय भाषाओं पर आघात छोटे-मोटे शासन अथवा अधिकारी ने नहीं किया है। यह आघात तो भारतवर्ष के केंद्रीय शासन के शिक्षा विभाग का आघात है। भारत की आशाएं निराशा में परिणत नहीं हो रही हैं। भारतीय शासन की समस्त शक्ति अब भारतीय भाषाओं के पंगुकरण में लग जाएगी। भारतीय भाषाएं आधुनिक ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में घुल न सकेंगी। इस ओर उनका झांकना भी अक्षम्य होगा।


1949 से पूर्व भारत के समान चीन में भी वैज्ञानिक और औद्योगिक शब्दावली की न्यूनता थी। भारत के समान चीन में भी अंग्रेजी का पूरा साम्राज्य था। प्रत्येक पढ़ा—लिखा व्यक्ति अंग्रेजी से परिचित था, किंतु चीन के राष्ट्रीय शासन ने अंग्रेजी को हटाया और चीनी भाषा में साहित्य सर्जन प्रारंभ किया। पिछले सात वर्ष में वहां वैज्ञानिक ग्रंथों का सर्जन सैकड़ों की संख्या में हुआ है। दिन—प्रतिदिन आवश्यकता के अनुसार पुस्तकें निकलती आ रही हैं। अंग्रेजी के आधार पर नहीं, बल्कि रूसी और जापानी पुस्तकों के आधार पर। चीन के 20,000 इंजीनियर चीनी भाषा द्वारा प्रतिवर्ष शिक्षा प्राप्त करते हैं। उनके डॉक्टर, वैज्ञानिक चीनी भाषा में ही शिक्षा लेते हैं। इसके विपरीत भारतवर्ष में क्या हुआ? भारतीय भाषाओं के दारिद्रय का गान यहां के अधिकारियों का गान है। भारतीय भाषा समृद्धि का निष्पादन इनका कार्य नहीं है। ये चाहते हैं कि प्रत्येक भारतीय बालक के शैशव और यौवन के 10 वर्ष अंग्रेजी के वर्ण योग और मुहावरे स्मरण करने में व्यतीत हो जाएं। जो अमूल्य समय विज्ञान की प्राप्ति में लगना चाहिए था, वह समय विदेशी भाषा में पारंगत बनने के लिए लग रहा है। प्रत्येक विद्यार्थी के जीवन काल के 5 वर्ष से 10 वर्ष तक का समय नाश हो रहा है।

आज भारत इंग्लैंड और अमेरिका के प्रकाशकों का विक्रय क्षेत्र है। बच्चों की पुस्तकों से लेकर परमाणु शक्ति तक की पुस्तकें इंग्लैंड और अमेरिका से भारत में आ रही हैं। यह आश्चर्य है कि भारतीय शासन यह कहे कि भारतीय भाषाओं में उपयुक्त पुस्तकें विद्यमान नहीं हैं। भारत में है क्या? भूमि और भूखी दरिद्र जनता। भारत की भूमि से भोजन उपजाना, भारत की भूमि से खनिज निकालना, भोजन और खनिजों द्वारा भारत की भूखी और दरिद्र जनता को समृद्ध बनाना शासन का ही तो काम है। यदि शासन शारीरिक भोजन का प्रबंध कर रहा है, तो मानसिक और बौद्धिक भोजन के प्रबंध से वह क्यों परे भागता है?    

 

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