समस्त संकटों से मुक्ति दिलाता है, संकष्ट गणेश चतुर्थी का व्रत

आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र,

गणेश संकष्टी इस वर्ष सभी कष्टो को तिरोहित करके सुख और सौभाग्य का दाता बनेगा। गणेश संकष्टी व्रत 21जनवरी दिन शुक्रवार को है। इस दिन सूर्योदय 6 बजकर 40 मिनट पर और तृतीया तिथि का मान प्रातःकाल 7 बजकर 26 मिनट तक,पश्चात चतुर्थी तिथि सम्पूर्ण दिन और रात्रि पर्यन्त तक है।मघा नक्षत्र प्रातःकाल 8 बजकर 42 मिनट,अनन्तर पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र,इसी तरह सौभाग्य योग दिन में 2 बजकर 26 मिनट,पश्चात शोभन योग सम्पूर्ण रात्रि पर्यन्त है।इस प्रकार गणेश संकष्टी व्रत इस वर्ष शुभ दिन और दो शुभ योग (सौभाग्य और शोभन) के सुयोग में है।

कृष्ण पक्ष की गणेश चतुर्थी व्रत चन्द्रदोय व्यापिनी ही ग्राह्य है।ऐसा निर्णय सिन्धु का मत है।यह भी कहा गया है कि इसमे तृतीया का संयोग उत्तम और पंचमी का योग निषिद्ध है।इसका कारण दर्शाते हुए कहा गया है कि तृतीया तिथि के स्वामिनी माता गौरी है और चतुर्थी के स्वामी गणेश है।अतः इनका योग शुभता देने वाला है।पंचमी के स्वामी नाग देवता होने से अग्राह्य है।

भविष्य पुराण में कहा गया है कि जब मनुष्य भारी संकट में हो, संकटों और मुसीबतों के दिन महसूस करे या भविष्य मे किसी अनिष्ट की आशंका हो तो उसे संकष्ट गणेश चतुर्थी का व्रत करना चाहिए। इससे इहलोक और परलोक दोनों में सुख मिलता है। इस व्रत को करने से व्रती के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारो पुरूषार्थों की प्राप्ति होती है। मनुष्य इच्छित फल को प्राप्त होकर श्रीगणेश (समस्त शुभता) को प्राप्त हो जाता है। यहाॅ तक इस व्रत को करने से विद्यार्थी को विद्या और रोगी को आरोग्यता की प्राप्ति होती है। 

माघ के इस संकष्टी गणेश चतुर्थी के दिन सायंकार चन्द्रोदय के पूर्व काले तिल से निर्मित लड्डू, गुड़ और शकरकन्द(गन्जी) भगवान गणेश को अर्पित किया जाता है।गणेश पृथ्वी तत्त्व के देवता है अतः पृथ्वी के गर्भ मे निहित मीठे कन्दमूल उन्हे विशेष प्रिय है।इसी कारण उन्हे शकरकन्द (मीठा कन्दमूल)अर्पण किया जाता है।

अर्घ्य प्रदान करने के बारे में कहा गया है कि तिथि की अधिष्ठात्री देवी एवं रोहिणी पति चन्द्रमा को प्रत्येक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेश पूजन के अनन्तर अर्घ्य प्रदान करना चाहिए। गणेश कोश में दिये गये निर्णय के अनुसार शुक्ल चतुर्थी को केवल तिथि के लिए मध्याह्न काल में तीन अर्घ्य देना चाहिए,परन्तु कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चन्द्रोदय काल में गणेश जी के लिए तीन,तिथि के लिए तीन और चन्द्रमा के लिए सात अर्घ्य देने चाहिए। इस प्रकार कृष्ण चतुर्थी को तेरह अर्घ्य देने का विधान है।

तदन्तर एक जलपात्र में जल, पुष्प, पीला चावल, सुपाड़ी, चन्दन और एक सिक्का डालकर भगवान गशेश जी को अर्घ्य प्रदान करे--

पूजन विधि

इस दिन प्रातःकाल स्नान के अनन्तर देवाधिदेव गणेश की प्रसन्नता के लिए व्रतोपवास का संकल्प करके दिन भर संयमित रहकर श्रीगणेश जी का स्मरण-चिन्तन एवं भजन करते रहें।चन्द्रोदय होने पर मिट्टी की या सुपाड़ी की गणेश मूर्ति बनाकर उसे किसी काष्ठासन पर स्थापित करे।गणेश जी के साथ उनके आयुध और वाहन भी हों।मूर्ति के अभाव में प्रतीकात्मक अक्षत पुन्ज ही रख दें।तदन्तर षोडशोपचार विधि से उनका पूजन करें।फिर मोदक तथा गुड़ के बने हुए तिल के लड्डू का नेवेद्य अर्पित करें।आचमन कराकर प्रदक्षिणा और नमस्कार करके पुष्पाञ्जलि अर्पित करें।

ऊॅ एकदन्ताए विद्महे वक्रतुण्डाय धिमहि,तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।-इस मन्त्र से अथवा ऊॅ गंणपतये नमः, से ही अर्घ्य दें।

श्रीगणेश जी समस्त विघ्नविनाशक विद्या,बुद्धि,सम्पन्नता एवं समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले देवता हैं।इनकी पूजा समस्त मांगलिक कार्यो के प्रारम्भ में होती है।इनकी पूजा केवल मनुष्य ही नही करते हैं,प्रत्युत देवगण भी प्रत्येक कार्य के आरम्भ में करते हैं।गणेश पुराण मे कहा गया है कि भगवान शिव ने त्रिपुर दैत्य के उपर विजय प्राप्त करने के लिए,भगवान विष्णु ने राजा बलि को बांधने के लिए ,ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के लिए,शेष जी पृथ्वी धारण करने के लिए,दुर्गा जी महिषासुर वध के समय ,सिद्ध लोग अपनी सिद्धि की प्राप्ति के लिए और कामदेव ने विश्वविजय के निमित्त गणेश जी का संकष्ट चतुर्थी व्रत और ध्यान किया था।

अर्घ्य का समय--इस दिन रात को 8 बजकर 39 मिनट पर चन्द्रोदय होने पर अर्घ्य दिया जायेगा।

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