शरद पूर्णिमा की रात्रि में होती है अमृत की वर्षा

शरद् पूर्णिमा 9 अक्टूबर दिन रविवार को  


 शरद् पूर्णिमा 9 अक्टूबर रविवार को सूर्योदय 6 बजकर 11 मिनट पर और पूर्णिमा तिथि का मान सम्पूर्ण दिन और अर्धरात्रि के पश्चात रात में 2 बजकर 24 मिनट तक, उत्तराभाद्र नक्षत्र भी सायंकाल 5 बजकर 17 मिनट पश्चात रेवती नक्षत्र,ध्रुव योग सांय काल 8 बजकर 32 मिनट और इस दिन सुस्थित नामक औदायिक योग हैं। अर्धरात्रि में पूर्णिमा तिथि विद्यमान रहने से शरद् पूर्णिमा के लिए यह दिन प्रशस्त है।
यह उत्सव रात्रि में किया जाता है।जिस दिन सम्पूर्ण रात्रि में पूर्णिमा हो,उस दिन शरद् पूर्णिमा का उत्सव सम्पन्न होता है।शरद् ऋतु में आकाश निर्मल हो जाता है वह सर्वत्र शीतल मन्द सुगन्ध हवा बहने लगती है।शरद्  ऋतु की रात्रि में चन्द्रमा निर्मल और परिपूर्ण रहता है। पृथ्वी से उसकी दूरी भी कम हो जाती है वह चन्द्रमा की चांदनी में अमृत का निवास रहता है, इसलिए उसकी किरणों से अमृतत्व और आरोग्य की प्राप्ति सुलभ होती है।इस पूर्णिमा को शरद् पूर्णिमा कहते हैं।इस दिन प्रातःकाल अपने आराध्य देव को सुन्दर वस्त्राभूषण से सुसज्जित करके यथाविधि षोडशोपचार विधि से पूजन करना चाहिए। अर्धरात्रि के समय गो दुग्ध से बनी खीर में घी तथा चीनी मिलाकर पूरियों की रसोई सहित भगवान को भोग लगाना चाहिए।खीर से भरे पात्र को खुली चांदनी में रखें। इसमें रात्रि के समय चन्द्रकिरणों द्वारा अमृत गिरता है। प्रातः काल इसका सबको प्रसाद देकर स्वयं ग्रहण करना चाहिए। पूर्णिमा व्रत करके,कहानी सुनकर चन्द्रमा को जल से अर्घ्य देना चाहिए। विवाह होने के बाद पूर्णमासी के व्रत का विधान शरद् पूर्णिमा से ही किया जाता है। कार्तिक का व्रत भी शरद् पूर्णिमा से ही आरंभ करना चाहिए।इस दिन कोजागर पूजा भी करनी चाहिए।इस दिन से प्रारम्भ कर तेरह पूर्णिमा का व्रत करने के पश्चात उद्यापन किया जाता है।इसे रास पूर्णिमा भी कहते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी पूर्णिमा की रात्रि में गोपियों के साथ महारास का आयोजन किए थे।व्रज में यह उत्सव बहुत उत्साह पूर्वक मनाया जाता है।इस दिन भगवान विष्णु का पूजन कर सत्यनारायण व्रत भी करना चाहिए।

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इस दिन कोजागर व्रत किया जाता है। प्राचीन कालीन संस्कृत नाटक और काव्यों में जो कौमुदी महोत्सव का उल्लेख मिलता है,वह इसी दिन होता था।आज के दिन धन सम्पत्ति के अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी की भी पूजा होती है।--प्रात: काल उठकर शौचादि के बाद किसी नदी या तालाब अथवा अपने घर पर ही स्नान कर इस व्रत का मानसिक संकल्प करें।इस दिन सदाचार से व्यतीत कर सायंकाल पुनः स्नानादि से निवृत्त होकर लक्ष्मी जी की पूजा के लिए निम्न संकल्प करें--" अमुक गोत्र अमुक शर्मा वा नामांकन मम समस्त दु:ख दौर्भाग्य विनाश पूर्वक विपुल धन धान्य सौभाग्यदि प्राप्तर्थं कोजागरी शरत्पूर्णिमा निमित्तकं श्रीमहालक्ष्मी पूजनं करिष्ये।"--ऐसा संकल्प करके श्रीमहालक्ष्मी जी की पूजा करें।पूजन में पूर्व गणपति आदि देवों की भी पूजा सम्पन्न की जाए। विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों का भोग लगाएं। पश्चात ब्राह्मण भोज कराकर सपरिवार स्वयं भोजन करें।भजन कीर्तन करते हुए रात भर जागकर करें।इस दिन श्री सूक्त, लक्ष्मी स्त्रोतादि का पाठ करने का भी विधान है।यदि स्वयं न कर सकें तो किसी सुयोग्य विद्वान से ही करावें। पाठ की पूर्ति के पश्चात उसका दशांश हवन कमल गट्टा, बेल की गूद्दी,पंचमेवा और विविध प्रकार के फल से या खीर आदि से कराते हैं।इस दिन रात में जागरण का बहुत महत्व है। मान्यता है कि रात में लक्ष्मी जी भूलोक मे सब घरों में जाती हैं और जो जागता है,उसे वर्ष भर के लिए धन धान्य सम्पत्ति देती हैं।इस दिन रात में द्यूतक्रिणा का भी विधान है --" निशीथे वरदा लक्ष्मी: को जागर्तीति भाषिणी।तस्मै वित्तं प्रयच्छामि अक्षै:क्रीड़ां क्योंकि यह:।।"


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